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अध्याय 14 ,श्लोक 7



श्लोक

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥7॥

रजो राग-आत्मकम् विद्धि तृष्णा सड् समुद् भवम् ।
तत् निबध्नाति कौन्तेय कर्मसड्रेन देहिनम् ।।७।।

शब्दार्थ

(रजो) रजो गुण (राग-आत्मकम् ) जोश, राग, उत्साह, वासना की भावना उत्पन्न करता है। (विद्धि) (इस बात को अच्छी तरह) समझ लो कि इस गुण) से (देहिनम्) मनुष्य में (तृष्णा) लोभ (लालच की) (सङ्ग समुदभवम्) भावना पैदा हो जाती है। (कौन्तेय) हे कुन्ती पुत्र (अर्जुन)! (तत्) यह लोभ ही मनुष्य को (कर्म सङ्गेन) निरंतर काम करने के साथ (निबध्नाति) बांध देती है।

अनुवाद

रजो गुण जोश, राग, उत्साह, वासना की भावना उत्पन्न करता है। (इस बात को अच्छी तरह) समझ लो कि इस गुण से मनुष्य में लोभ (लालच की) भावना पैदा हो जाती है। हे कुन्ती पुत्र (अर्जुन)! यह लोभ ही मनुष्य को निरंतर काम करने के साथ बांध देती है।