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अध्याय 15 ,श्लोक 3



श्लोक

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥3॥

न रुपम् अस्य इह तथा उपलभ्यते न अन्तः न च आदिः न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थम् एनम् सु-विरुढ मूलम् असड-शस्त्रेण दृढेन छित्वा ।। ३ ।।

शब्दार्थ

(इह) यह संसार (अश्वत्थम्) (एक) बरगद के पेड़ (के समान हैं) (न) न (हम) (अस्म) इसके (रुपम्) आकार को (न) न (आदि) आरम्भ को (च) और (न) न (अन्त) अंत को (तथा) और (न) न (सम्प्रतिष्ठा) बुनियाद को (समझ सकते हैं) (दृढ़ेन) दृढ़ता से (मज़बूती से) (असड) एक ईश्वर की श्रद्धा के (शस्त्रेण) शस्त्र को (पकड़कर) (एनम्) इस पेड़ के (सु-विरुढ) बहुत ही मज़बूत (मूलम्) जडों को (छित्वा) काट दो ।

अनुवाद

यह संसार (एक) बरगद के पेड़ (के समान हैं)। न (हम) इसके आकार को, न आरम्भ को, और न अंत को और न बुनियाद को ( समझ सकते हैं)। दृढ़ता से (मज़बूती से) एक ईश्वर की श्रद्धा के शस्त्र को (पकड़कर) इस पेड़ की मज़बूत जड़ों को काट दो ।

नोट

बरगद की शाखों से जड़ निकल कर धरती में जम जाती है और शाख को सहारा देती है। इस कारण बरगद की शाखें सभी ओर बढ़ती रहती है। बरगद के पेड़ की आयु भी बहुत होती है। इस कारण प्राचीन पेड़ इतने फैल जाते है कि उनका आरम्भ और अन्त तक दिखाई नहीं देता। कलकत्ता के निकट आचार्य जगदीश बोटेनिक्ल गार्डन में एक बरगद का पेड़ ३.५ ऐकड़ (१५६००० sq.ft) में फैला हुआ है। ऐसे ही बरगद के पेड़ का वर्णन श्लोक नं. १५.३ में है।