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अध्याय 15 ,श्लोक 4



श्लोक

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥4॥

ततः पदम् तत् परिमार्गितव्यम् यस्मिन् गताः न निवर्तन्ति भूयः । तम् एव च आद्यम् पुरुषम् प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसूता पुराणी ॥४॥

शब्दार्थ

(इह) यह संसार (अश्वत्थम्) (एक) बरगद के पेड़ (के समान हैं) (न) न (हम) (अस्म) इसके (रुपम्) आकार (ततः) फिर (तत्) उस (अन्य लोक) (पदम्) के स्थान को (परिमार्गितव्यम्) (तलाश) करना चाहिए (यस्मिन) जहाँ (गता:) जाकर (भूय:) दोबारा (कोई भी) (निवर्तन्ति) (इस संसार में ) वापस नहीं आता (एवं) (जहाँ जाकर) नि:संदेह (तम्) उसे (आद्यम्) (उस) तब से प्रथम (प्रदुषम् ) परमात्मा (की) (प्रपद्ये) शरण मिल जाती है (यतः) (यह अन्य लोक वह स्थान है) जिसके के कारण (पुराणी) इस प्राचीन पृथ्वी लोक का (प्रकृत्तिः) आरम्भ (प्रसृता) और फैलाव (अस्तित्व) है।

अनुवाद

फिर उस (अन्य लोक) के स्थान को (तलाश) करना चाहिए, जहाँ जाकर दोबारा (कोई भी) (इस संसार में) वापस नहीं आता। (जहाँ जाकर) नि:संदेह उसे (उस) तब से प्रथम परमात्मा (की) शरण मिल जाती है। (यह अन्य लोक वह स्थान है) जिसके के कारण इस प्राचीन पृथ्वी लोक का आरम्भ और फैलाव (अस्तित्व) है।

नोट

अन्य लोक का वर्णन नोट नं. N-4 में पढ़िए।