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अध्याय 17 ,श्लोक 15



श्लोक

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् । स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥15॥

अनुद्वेग-करम् वाक्यम् सत्यम् प्रिय हितम् च यत ।
स्वाध्याय अभ्यसनम् च एवं वाडमयम् तपः उच्यते ।। १५ ।।

शब्दार्थ

(वाक्यम्) वह वाक्य (शब्द) (अनुद्वेग-करम्) जो किसी को संकट, पीडा, विपत्ती में न डालने वाले हों (सत्यम) सच्चे (प्रिय) प्रिय और (हितम्) लोगों के हित में हों (च) और (यत) जो (शब्द) (स्वाध्याय) वेदों में (सोच विचार करके) (अभ्यसनम्) और उनको पढ़कर (बोले जाते हैं) (एव) नि:संदेह (ऐसे शब्द का बोलना) (वाक-मयम्) वाणी सम्बन्धी (तप) तप (उच्यते) कहा जाता है।

अनुवाद

वह वाक्य (शब्द), जो किसी को संकट, पीडा, विपत्ती में न डालने वाले हों, सच्चे, प्रिय और लोगों के हित में हों, और जो (शब्द) वेदों में सोच विचार करके और उनको पढ़कर बोले जाते हैं। नि:संदेह ऐसे शब्द का बोलना वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है।

नोट

ईश्वर ने मानवजाति को पवित्र कुरआन में बातचीत के सम्बन्ध में यह उपदेश दिए। “(हे मुहम्मद)! मेरे बन्दों से कह दो, बात वही कहें, जो उत्तम हो। शैतान तो उनके दरमियान फसाद डालता है। (झगडे और दंगे कराता है)। निस्संदेह शैतान मनुष्य का खुला हुआ दुश्मन है। (सूरह बनी इसराईल - १७, आयत- ५३) ईश्वर ने पवित्र कुरआन में कहा है कि, “भलाई और बुराई एक समान नहीं होती। सख्त-कालमी का ( कड़वी बात का) ऐसे तरीके से जवाब दो जो बहुत ही अच्छा हो। ऐसा करने से तुम देखोगे कि, जिसमें और तुम में दुश्मनी थी वह तुम्हारा गहरा (घनिष्ठ) दोस्त है। और यह बात उन्हीं लोगों को प्राप्त होती है जो सहनशीलता वाले हैं। और उन्हीं को प्राप्त होती है जो बड़ा नसीब वाला (भाग्यवान) है। (सूरह हा-मीम-सजदा- ४१, आयत-३४,३५)