Home Chapters About



अध्याय 17 ,श्लोक 21



श्लोक

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः ।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् || 21||

यत् तु प्रति उपकार- अर्थम् फलम् उद्दिश्य वा पुनः ।दीयते च परिक्लिष्टम् तत् दानम् राजसम् स्मृतम्।।२१।।

शब्दार्थ

(यत्) जो (दान) (प्रति) वापस मिलने की आशा रखते हुए (उपकार) उपकार जताते हुए (च) और (अर्थम्) अपने लाभ के लिए (पुनः फलम्) लोगों से उसका फल (फायदा) पाने के (उद्दिश्य) उद्देश्य (लक्ष्य) से (वा) या (परिक्लिष्टम्) पछताते हुए (दीयते) दिया जाए (तत) वह (दानम्) दान (राजसम्) रजो गुण से प्रेरित (स्मृतम्) समझो।

अनुवाद

जो दान वापस मिलने की आशा रखते हुए उपकार जताते हुए और अपने लाभ के लिए, लोगों से उसका फल (फायदा) पाने के उद्देश्य (लक्ष्य) से, या पछताते हुए दिया जाए वह दान रजो गुण से प्रेरित समझो।

नोट

ईश्वर ने पवित्र कुरआन में कहा कि, “ऐ लोगों जो ईमान लाए हो, जो माल तुमने में कमाए हैं और जो कुछ हमने धरती से तुम्हारे लिए निकाला है, उसमें से अच्छा हिस्सा ईश्वर के मार्ग में खर्च करो। और बुरी और अपवित्र देने का प्रयास न करना कि (वह वस्तुए तुम्हें दी जाए तो) (लेते समय) आँख बन्द किए बिना उन्हें कभी न लो। और जान रखो कि ईश्वर निस्पृह और प्रशंसनीय है।” (सूरे बकरह- २, आयत २६७)