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अध्याय 17 ,श्लोक 26



श्लोक

सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥26॥

सत भावे साधु-भावे च सत् इति एतत् प्रयुज्यते ।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सत-शब्द पार्थ युज्यते ।। २६ ।।

शब्दार्थ

(पार्थ) हे पार्थ (अर्जुन) (सत्-शब्द) सत शब्द (युज्यते) कहा जाता है (सत-भावे) ईश्वर के • अविनाशी गुण सत को याद करने के उद्देश्य से (च) और (साधु-भावे) और (ईश्वर के) श्रेष्ठ, शुभ, उपकार वाले गुणों के लिए भी (तथा )और (इति) इसी तरह (एतत्) यह (शब्द) (प्रयुज्यते) उपयोग होता है (कर्मणि) उन कर्मों के लिए (प्रशस्ते) जो ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए किए जाते हैं।

अनुवाद

हे पार्थ (अर्जुन), सत शब्द कहा जाता है ईश्वर के अविनाशी गुण सत को याद करने के उद्देश्यसे और ईश्वर के श्रेष्ठ, शुभ, उपकार वाले गुणों के लिए भी और इसी तरह यह (शब्द) उपयोग होता है, उन कर्मों के लिए जो ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए किए जाते हैं।