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अध्याय 17 ,श्लोक 27



श्लोक

यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्यवाभिधीयते ||27||

यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सत् इति च उच्यते ।
कर्म च एव तत् अर्थीयम् सत् एवं अभिधीयते ।। २७ ।।

शब्दार्थ

(यज्ञे) यज्ञ (तपसि) तपस्या (दाने) दान (च) और (स्थितिः) ईश्वर की प्रार्थना में स्थित हो जाना (इति च) और यह सब भी (सत) सत (उच्यते) कहलाते हैं (च) और (एव) नि:संदेह (कर्म) वह कर्म (अर्थीयम्) जो इन (शुभ) उद्देश के लिए किए जाए (इति एवं ) नि:संदेह वह भी (सत) सत (अभिधीयते) भाव को प्रकट करते हैं।

अनुवाद

यज्ञ, तपस्या, दान और ईश्वर की प्रार्थना में स्थित हो जाना और यह सब भी सत कहलाते हैं और नि:संदेह वह कर्म जो इन शुभ उद्देश के लिए किए जाए, नि:संदेह वह भी सत भाव को प्रकट करते हैं।