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अध्याय 17 ,श्लोक 3



श्लोक

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥3॥

सत्व- अनुरुपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धा मयः अयम् पुरुषः यः यत् श्रद्धः सः एव सः ।। ३ ।।

शब्दार्थ

(भारत) हे भारत (अर्जुन) (सर्वस्य) सारे लोगों में (श्रद्धा) (एक ईश्वर में श्रद्धा (सत्व) सत्वगुण (अनुरुपा) की तरह है (भवति) (वह जन्म से ही मनुष्य के अंदर) होती है (य:) (उसके बाद) जो (पुरुष:) मनुष्य (मय:) जिस प्रकार के (श्रद्धा) श्रद्धा (के साथ) (अयम्) इस संसार में (जीवन व्यतीत करता है) (स:) वह (एव) नि:संदेह (यत्) उसी (श्रद्धा) श्रद्धा (के साथ होता है जब) (स) वह (मृत्यु पाता है)।

अनुवाद

हे भारत (अर्जुन)! सारे लोगों में एक ईश्वर में श्रद्धा जो सत्वगुण की तरह है वह जन्म से ही मनुष्य के अंदर होता है। उसके बाद जो मनुष्य जिस प्रकार के श्रद्धा के साथ इस संसार में जीवन व्यतीत करता है वह नि:संदेह उसी श्रद्धा के साथ होता है जब वह मृत्यु पाता है।

नोट

श्लोक नं. १७.३ में लिखा है कि, आप जिस गुण के अनुसार जीवन गुजारोंगे, आपकी के मृत्यु उसी अवस्था में होगी। श्लोक नं. १४.१५ के अनुसार रजो गुण, और तमो गुण वालों का नर्क में जाना अटल है। दयालु ईश्वर ने इस अध्याय में अपने आपको पहचानने का तरीका बताया है। भोजन, यज्ञ, तप, तथा दान यह तीनों गुण वालो के अलग अलग होते हैं। यह चारों काम हम किस तरह करते हैं इससे हम अपने आपको पहचान सकते हैं। और सत्व गुण अपने में उत्पन्न करने का प्रयास कर सकते हैं।