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अध्याय 18 ,श्लोक 3



श्लोक

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः । यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यमिति चापरे ||3||

त्याज्यम् दोष-वत् इति एके कर्म प्राहुः मनीषिणः । यज्ञ दान तपः कर्म न त्याज्यम् इति च अपरे ।। ३ ।।

शब्दार्थ

(इति) इसी तरह (च) और (अपरे) दूसरे लोग (प्राहुः) कहते हैं कि (एके) (हर) एक (कर्म) कर्म को करना (दोष-वत् ) गलती करना है (त्याज्यम्) (इसलिए हर कर्म को) छोड़ देना चाहिए। (मनीषिणः) (किन्तु) ज्ञानी (इति) इस तरह (कहते हैं कि) (यज्ञ) यज्ञ (दान) दान (तपः) तप (कर्म) (जैसे) कर्म (न) (कभी) नहीं (त्याज्यम्) छोड़ना चाहिए।

अनुवाद

इसी तरह और दूसरे लोग कहते हैं कि हर एक कर्म को करना गलती करना है। इसलिए हर कर्म को छोड़ देना चाहिए। किन्तु ज्ञानी इस तरह कहते हैं कि यज्ञ, दान, तप जैसे कर्म कभी नहीं छोड़ना चाहिए।

नोट

यज्ञ समझने के लिए नोट नं. N १३ पढ़िए। पवित्र कुरआन में वैराग्य का निम्नलिखित वर्णन है। “और हमने नूह (विवस्वत मनु) और इब्रराहीम (अबीराम) को पैगंबर बनाकर भेजा और उनकी संतानों में पैगंबरी और दिव्य ग्रंथों के अवतरित करने का कर्म जारी रखा। तो उनमें से कुछ (समुदाय) तो सत्य मार्ग पर हैं, और अधिकतर ईश्वर की आज्ञा का पालन नहीं करते। फिर उनके पीछे उनके पद चिन्हों पर हम अपने और पैगंबर भेजते रहे और उनके बाद मरयम के पुत्र ईसा को भेजा और उनको इन्जील (बाईबल) प्रदान किया। और जिन लोगों ने उनका अनुसरण किया उनके हृदयों में हमने करुणा और दयालुता रख दी और संसार त्याग (वैराग्य) की प्रथा उन्होंने स्वयं निकाली, हमने उन्हें इसका आदेश नहीं दिया था। मगर उन्होंने अपनी कल्पना में ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए स्वयम ही ऐसा कर लिया था। फिर जैसा उसको निभाना चाहिए था निभा न सके। तो उनमें से जो लोग ईमान लाए उन्हें हमने उनका कर्मफल दिया और उनमें से अधिकतर अवज्ञाकारी है।" (सूरह अल-हदीद ५७, आयत २७)