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अध्याय 18 ,श्लोक 37



श्लोक

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्। तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्॥37॥

यत् यत् अग्रे विषम इव परिणामे अमृत उपमम् तत् सुखम् सात्विकम् प्रोक्तम् आत्म बुद्धिप्रसाद जम् ।।३७ ।।

शब्दार्थ

(तत्) यह (वेदों का अध्ययन वह सुख है ) (यत) जो (अग्रे) आरंभ में (विषम् इव) विष की तरह लगता है (परिणामे) (किन्तु) परिणाम में (अमृत) अमृत (उपमम् ) के बराबर है। (आत्म) (अच्छी तरह जान लो कि) ईश्वर (की याद से) (बुद्धि) मन (में) (प्रसाद) सुख शान्ति (जम्) जन्म लेती है (तत) (यह) वह (सुखम्) सुख शान्ति है (जो) (सात्विकम्) सात्विक गुण से(प्रोक्तम्) कहा गया है।

अनुवाद

यह वेदों का अध्ययन वह सुख है जो आरंभ में है विष की तरह लगता है। किन्तु परिणाम में अमृत के बराबर है। (अच्छी तरह जान लो कि) ईश्वर की याद से मन में सुख शान्ति जन्म लेती है। यह वह सुख शान्ति है जो सात्विक गुण से कहा गया है।