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अध्याय 18 ,श्लोक 57



श्लोक

चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः। बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥57||

चेतसा सर्व कर्माणि मयि संन्यस्य मत परः । बुद्धि-योगम् उपाश्रित्य मत्-चित्तः सततम् भव ॥५७॥

शब्दार्थ

(चेतसा) पूरी चेतना के साथ (सर्व कर्माणि) अपने सब कर्म (मयि) (केवल) मुझे (संन्यस्य) समर्पित करो (मत-परः) मुझे अपने जीवन का लक्ष्य बनाओ (बुद्धि-योगम्) अपनी बुद्धि को मुझसे जोड़े रखो (उपाश्रित्य) (मेरी) शरण लो (मत्) मुझमें (सततम्) सदैव (चित्त:) लीन रहने वाले (भव) बन जाओ।

अनुवाद

पूरी चेतना के साथ अपने सब कर्म केवल मुझे समर्पित करो। मुझे अपने जीवन का लक्ष्य बनाओ। अपनी बुद्धि को मुझसे जोड़े रखो। मेरी शरण लो, मुझमें सदैव लीन रहने वाले बन जाओ।