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अध्याय 18 ,श्लोक 6



श्लोक

एतान्यपि च। तु कर्माणि सगं त्यक्त्वा फलानि कर्तव्यानीति में पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ||6||

एतानि अपि तु कर्माणि सम व्यक्तत्वा फलानि च । कर्तव्यानि इति मे पार्थ निश्चितम् मतम् उत्तमम् ||६||

शब्दार्थ

(तु) किन्तु (पार्थ) हे पार्थ (अर्जुन) (कर्माणि) (यज्ञ, तप, दान जैसे) कर्म के साथ (सड्म्) संगम (शिर्क को और) (फलानि) फल (को भी) (त्यक्त्वा) छोड़ देना चाहिए (अर्थात निःस्वार्थ कर्म करना चाहिए) (कर्तव्यानि) (यज्ञ, तप, दान को करना और संगम को छोड़ना) अनिवार्य कर्तव्य समझना चाहिए। (इति) इस तरह (मे) मेरा (मतम्) आदेश है (उत्तमम्) (और सबसे) उत्तम (निश्चितम्) निर्णय है।

अनुवाद

किन्तु हे पार्थ (अर्जुन)! (यज्ञ, तप, दान जैसे) कर्म के साथ संगम (शिर्क को) और इन कर्मों के फल को भी छोड़ देना चाहिए। अर्थात नि:स्वार्थ कर्म करना चाहिए। यज्ञ, तप, दान को करना और संगम को छोड़ना अनिवार्य कर्तव्य समझना चाहिए। इस तरह मेरा आदेश है और सबसे उत्तम निर्णय है।