Home Chapters About



अध्याय 2 ,श्लोक 14



श्लोक

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः। आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥14॥

मात्रा-स्पर्शाः तु कौन्तेय शीत उष्ण सुख दुःख दाः आगम अपायिनः अनित्याः तान् तितिक्षस्व भारत ।।१४।।

शब्दार्थ

(कौन्तेय) हे अर्जुन (शीत उष्ण ) जैसे जाड़े और गरमी के मौसम (अपायिनः) आते जाते रहते हैं। (सुख-दुःख) सुख-दुःख (भी जीवन में ऐसे ही आते जाते रहते हैं।) (तु) परंतु (दाः) यह आपको कितने कष्ट में डालते हैं यह (मात्रा स्पर्शाः) केवल इस बात पर निर्भर करता है कि आप उन्हें कैसा महसूस करते हो? (भारत) हे अर्जुन (तान्) उनको (ऐसे ही सहन करो; जैसे तुम मौसम के बदलने को सहन करते हो।)

अनुवाद

हे अर्जुन, जैसे जाड़े और गरमी के मौसम आते जाते रहते हैं। सुख-दु:ख (भी जीवन में ऐसे ही आते जाते रहते हैं।) परंतु यह आपको कितने कष्ट में डालते हैं, यह केवल इस बात पर निर्भर करता है कि आप उन्हें कैसा अनुभव करते हो । हे अर्जुन!, उनको (ऐसे ही सहन करो जैसे तुम मौसम के बदलने को सहन करते हो।)