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अध्याय 2 ,श्लोक 33



श्लोक

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्य सङ्ग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥33॥

अथ चेत् त्वम् इमम् धर्म्यम् सङ्ग्रामम न करिष्यसि । ततः स्व-धर्मम् कीर्तिम् च हित्वा पापम् अवाप्यस्यसि ।। ३३ ।।

शब्दार्थ

(स्व-धर्मम्) अपने धर्म कर्तव्य के अनुसार (चेत) यदि ( त्वम्) तुम (धर्म्यम ) धर्म की स्थापना का यह (सङ्ग्रामम्) युद्ध (न) नहीं (करिष्यसि ) करोगे (ततः) तो तुम (कीर्तिम्) अपने यश (सम्मान) को भी ( हित्वा ) खो दोगे। (च) और (पापम्) तुम्हें पाप भी (अवाप्यस्यसि) मिलेगा।

अनुवाद

अपने धार्मिक कर्तव्य के अनुसार यदि तुम धर्म की स्थापना हेतु यह युद्ध नहीं करोगे तो तुम अपना यश (सम्मान) को भी खो दोगे और तुम्हें पाप भी मिलेगा।