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अध्याय 2 ,श्लोक 37



श्लोक

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥37॥

सुख दुःखे समे कृत्वा लाभा-लाभौ जय-अजयौ । ततः युद्धाय युज्यस्व न एवम् पापम् अवाप्स्यसि ।।३८।।

शब्दार्थ

(कृत्वा) (हे अर्जुन यह तुम्हारे लिए) अनिवार्य (है की तुम) (सुख) सुख (दुःखे) दुःख (लाभा लाभौ) लाभ और हानि (जय-अजयौ) हार जीत में ( समे) एक समान रहो ( धीरज रखो) (युद्धस्व) युद्ध ऐसे करो जैसे करना चाहिए ( अर्थात केवल धर्म की स्थापना के लिए) (एवम् ) इस तरह करने से तुम्हें (पापम् ) पाप (न) नहीं (अवाप्स्यसि) मिलेगा।

अनुवाद

(हे अर्जुन यह तुम्हारे लिए) अनिवार्य (है कि तुम) सुख-दुःख, लाभ और हानि, हार-जीत में एक समान रहो ( धीरज रखो ) । युद्ध ऐसे करो जैसे करना चाहिए (अर्थात केवल धर्म की स्थापना के लिए)। इस तरह करने से तुम्हें पाप नहीं मिलेगा।