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अध्याय 2 ,श्लोक 46



श्लोक

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके । तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥46॥

यावान् अर्थः उद-पानेसर्वतः सम्प्लुत-उदके । तावान् सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ।।४६ ।।

शब्दार्थ

(यावान) जिस प्रकार एक (सम्पत्लुत उदके) बड़े जलाशय (तालाब से) (सर्वतः) (मनुष्य की) सारी (अर्थ:) आवश्यकताएं पुरी हो जाती है। (उदपाने) (किन्तु) छोटे तालाब से नही होती। (तावान्) इसी प्रकार (विजानतः) जिसकी संपूर्ण श्रद्धा ( वेदेषु ) वेदों के उपदेशानुसार (ब्राह्मणस्य) एक ईश्वर में होते हैं। (सर्वेषु) (उसकी भी) सारी (आवश्यकताएं एक ईश्वर से पूरी हो जाती हैं।)

अनुवाद

जिस प्रकार एक बड़े जलाशय (तालाब से) (मनुष्य की) सारी आवश्यकताएं पूरी हो जाती हैं। (किन्तु) छोटे तालाब से नहीं होती। इसी प्रकार जिसकी संपूर्ण श्रद्धा वेदों के उपदेशानुसार एक ईश्वर में होते हैं। (उसकी भी) सारी (आवश्यकताएं एक ईश्वर से पूरी हो जाती हैं।)

नोट

ईश्वर पवित्र कुरआन में कहता है की, जो ईश्वर के प्रति सचेत (एवं उत्तरदायी) बनेगा, ईश्वर उसके लिए (सब कठिनाईयों से निकलने का) मार्ग निकालेगा। (जो व्यक्ति ईश्वर के प्रति सचेत एवं उत्तरदायी बना रहेगा) ईश्वर उसे वहाँ से जीविका देगा, जहाँ से उसने कल्पना भी न की हो। और जो व्यक्ति ईश्वर पर भरोसा करेगा, तो ईश्वर उसके लिए पर्याप्त है (काफी है)। निःस्संदेह ईश्वर अपना काम पूरा करके रहता है। ईश्वर ने हर चीज़ के लिए एक पैमाना (भाग्य, सिमा) निर्धारित कर रखा है। (पवित्र कुरआन-सूरे अल तलाक- (६५) आयत-२-३)