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अध्याय 2 ,श्लोक 5



श्लोक

रूनहत्वा हि महानुभावा- ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके । हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुंजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥5॥

गुरुन् अहत्वा हि महा-अनुभावान् श्रेयः भोक्तुम् भैक्ष्यम् अपि इहलोके । हत्वा अर्थ कामान्तु गुरुन् इह एव भुज्जीय भोगान् रुधिर प्रदिग्धान् ।। ५ ।।

शब्दार्थ

(हि) निःसंदेह (इस) इस संसार में (महाअनुभावान) इन महान अनुभाव (गुरुन) गुरुजनों की (अहत्वा) हत्या न करके (श्रेय) यह अच्छा है कि (भैक्ष्यम्) मैं भिक्षा मांग कर (भोक्तुम) अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करुं (अर्थ) जीवन के आनंद कामना की चाह में, ( गुरुन् ) मैं इन गुरुजनों की ( हत्वा ) हत्या (अपी) भी कर दूं (तो) परंतु (भोगान्) द लेने की वस्तुओं से ( भुञ्जीय) आनंद लेने के लिए (एव) नि:संदेह (इह) यह संसार मुझे ( रुधिर ) रक्त से (प्रदिग्धान्) लतपत (सना) हुआ मिलेगा।

अनुवाद

निःसंदेह, इस संसार में इन महान अनुभावि गुरुजनों की हत्या न करके यह अच्छा है कि मैं भिक्षा मांग कर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करूँ। जीवन के आनंद कामना की चाह में मैं इन गुरुजनों की हत्या भी कर दूं, परंतु आनंद लेने की वस्तुओं से आनंद लेने के लिए नि:संदेह यह संसार मुझे रक्त से लतपत (सना) हुआ मिलेगा।