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अध्याय 2 ,श्लोक 56



श्लोक

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥56॥

दुःखेषु अनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीत राग भय क्रोधः स्थितधी: मुनिः उच्यते ।। ५६ ।।

शब्दार्थ

(दुःखेषु) दुःखों में (अनुद्विग्रमनाः) जिसका मन आशा नहीं खोता (सुखेषु) (और) सुख में (विगतस्पृहः) और अधिक की चाह नहीं करता। (राग) (और जो) लालच (भय) (ईश्वर के अतिरिक्त किसी और के) भय से (क्रोधः) (और जो बिनाकारण) क्रोध से (बीत) मुक्त हो गया हो । ( मुनिः) ऐसे मननशील मनुष्य को ( स्थितधी:) ईश्वर की श्रद्धा पर स्थिर बुद्धि वाला (उच्यते) कहा जाएगा।

अनुवाद

दुःखों में जिसका मन आशा नही खोता, (और) सुख में और अधिक की चाह नहीं करता। (और जो) लालच, (ईश्वर के अतिरिक्त किसी और के) भय से (और जो बिनाकारण) क्रोध से मुक्त हो गया हो। ऐसे मननशील मनुष्य को ईश्वर की श्रद्धा पर स्थिर बुद्धि वाला कहा जाएगा।