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अध्याय 2 ,श्लोक 57



श्लोक

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥57॥

यः सर्वत्र अनभिस्नेहः तत् तत् प्राप्य शुभ अशुभम् । न अभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्टिता ।। ५७ ।।

शब्दार्थ

(यः) जो (सर्वत्र ) हर प्रकार के परिस्थितियों में (अनभिस्नेहः) अप्रभावित रहता है (तत्) जैसे जब (उसके साथ) (शुभ) (कुछ) अच्छा हो तो (न अभिनन्दति) न बहुत खुश होता है (तत्) और जब (अशुभक) दु:ख (प्राप) मिले तो (न द्वेष्टि) न उन परिस्थितियों से नफरत करता है । (तस्य) (तब) समझो की उसकी (प्रज्ञा) बुद्धि ( प्रतिष्ठिता) (ईश्वर की श्रद्धा में) स्थिर है।

अनुवाद

जो हर प्रकार के परिस्थितियों में अप्रभावित रहता है। जैसे जब ( उसके साथ) (कुछ) अच्छा हो तो न बहुत खुश होता है और जब दुःख मिले तो न उन परिस्थितियों से नफरत करता है। (तब) समझो की उसकी बुद्धि (ईश्वर की श्रद्धा में) स्थिर है।