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अध्याय 2 ,श्लोक 58



श्लोक

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥58॥

यदा संहरते च अयम् कुर्मः अगानि इव सर्वशः । इन्द्रियाणि इन्द्रिय अर्थेभ्यः तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। ५८ ।।

शब्दार्थ

(यदा ) जिस प्रकार (कूर्मः) कछुआ (अयम् ) अपने (अगानि) अंगो को (सर्वशः) सब ओर से (संहरते ) समेट लेता है (च इव) इसी प्रकार जो मनुष्य ( इन्द्रियाणि ) सब इच्छाओं को (इन्द्रिय अर्थेभ्य) इच्छा वाली वस्तुओं से ( हटा लेता है) (तस्य) तब उसकी (प्रज्ञा ) बुद्धि (प्रतिष्ठिता) (ईश्वर की श्रद्धा) में स्थिर हो जाती है।

अनुवाद

जिस प्रकार कछुआ अपने अंगो को सब ओर से समेट लेता है। इसी प्रकार जो मनुष्य सब इच्छाओं को इच्छा वाली वस्तुओं से हटा लेता है), तब उसकी बुद्धि (ईश्वर की श्रद्धा) में स्थिर हो जाती है।