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अध्याय 2 ,श्लोक 8



श्लोक

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्। अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं राज्यं चाधिपत्यम्॥8॥

न हि प्रपश्यामि मम अपनुद्यात् यत् शोकम् उच्छोषणम् इन्द्रियाणाम् ।
अवाप्य भूमौ असपत्नम् ऋद्धम् राज्यम् सुराणाम्
अपि च आधिपत्यम् ।। ८ ।।

शब्दार्थ

(अपि) यदि (मुझे) (भूमी) इस धरती पर (असपत्नम्) शत्रुरहित (ऋद्धम) दुःख और कष्टरहित (सुराणाम्) देवताओं से पूर्ण (च) और (आधिपत्यम) सर्वश्रेष्ठ (राज्यम्) राज्य भी (अवाण्य) मिल जाए, (हि) (तो भी) नि:संदेह (मम) मुझे (न) नहीं ( प्रपश्यामि ) दिखाई देता है कि यह (शोकम) मेरे दुःख को (उच्छोषणाम) हल्का करेगा।

अनुवाद

अगर (मुझे) इस धरती पर शत्रुरहित, दुःख और कष्टरहित, देवताओं से पूर्ण, और सर्वश्रेष्ठ राज्य भी मिल जाए, तो भी नि:संदेह मुझे नहीं दिखाई देता है कि यह मेरे दुःख को हल्का करेगा।