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अध्याय 3 ,श्लोक 17



श्लोक

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ।।17।।

यः तु आत्म - रतिः एव स्यात् आत्म-तुप्तः च मानवः । आत्मनि एव च सन्तुष्टः तस्य कार्यम् न विद्यते ।।१७।।

शब्दार्थ

(तु) नि:संदेह (यः) वह जो (आत्मरति) ईश्वर की स्मरण (याद) में डूबा (स्यात्) रहता (मानवः) वह व्यक्ति (आत्म-तुप्तः) ईश्वर कि तरफ से शान्ति पाता है (च) और (आत्मनि) (वह व्यक्ति) अपने अंदर (सन्तुष्ट:) शान्ति और सन्तुष्टी का अनुभव करता है। (च) और (तस्य) उसे और अधिक शान्ति और सन्तुष्ट रहने के लिए) (कार्यम्) और कोई काम ( न विद्यते) नहीं करने पड़ते।

अनुवाद

निःसंदेह वह जो ईश्वर की स्मरण (याद) में डूबा रहता, वह व्यक्ति ईश्वर कि तरफ से शान्ति पाता है। और (वह व्यक्ति) अपने अंदर शान्ति और सन्तुष्टी का अनुभव करता है और उसे (और अधिक शान्ति और सन्तुष्ट रहने के लिए और) कोई काम नहीं करने पड़ते।