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अध्याय 3 ,श्लोक 18



श्लोक

संजय उवाच:
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कञ्चन । न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥18॥

न एव तस्य कृतेन अर्थः न अकृतेन इह कश्चन । न च अस्य सर्वभूतेषु कश्चित् अर्थ व्यपाश्रयः ।।१८।।

शब्दार्थ

(इह) संसार में (इस प्रकार के सभी संन्तुष्ट और शांत व्यक्तियों को ) ( एवं ) नि:संदेह (न) न (अर्थ:) आवश्यकता है (कृतेन) कुछ (विशिष्ट) कर्म करने की (च) और (न ) न (तस्य) (कोई) ऐसी (अवश्यकता) है (अकृतेन) कुछ विशिष्ट कर्मों से बचा जाए (च) और (अस्य) ऐसे (सज्जन व्यक्ति को) (न) ना तो (कविता) कोई (अर्थ) आवश्यकता है। (सर्व भुतेषु ) संसार के सभी प्राणियों के (व्यपाश्रयः) शरण लेने की।

अनुवाद

संसार में (इस प्रकार के सभी संन्तुष्ट और शांत व्यक्तियों को) नि:संदेह, न अवश्यकता है कुछ (विशिष्ट) कर्म करने की, और न (कोई) ऐसी (अवश्यकता) है कि कुछ विशिष्ट कर्मों से बचा जाए। और ऐसे (सज्जन व्यक्ति को) न तो कोई अवश्यकता है संसार के सभी प्राणियों के शरण लेने की। (अर्थात ईश्वर की तरफ से मिली शांति के कारण वह अपने आप ही शांत और प्रसन्न रहता है।)