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अध्याय 3 ,श्लोक 3



श्लोक

श्रीभगवानुवाच लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥3॥

( श्री भगवान उवाच)
लोके अस्मिन् द्वि-विधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मा ज्ञान-योगेन सांङ्ख्यानाम् कर्म-योगेन योगिनाम् 11311

शब्दार्थ

(श्री भगवान उवाच) ईश्वर ने कहा, (अनघ) हे अर्जुन (अस्मिन्) इस (लोके) संसार में (निष्ठा) धर्म और ईश्वर के प्रति जो आदरपूर्ण भाव (या श्रद्धा) है (द्वि-विधा) उसके दो भाग हैं, जो (मया) मेरे द्वारा ( पुरा ) पहले ही (श्लोक नं. २:३९ में) (प्रोक्ता) कहा जा चुका है। (ज्ञान-योगेन) (उनमें से एक है) ज्ञान योग अर्थात वैदिक ज्ञान के अनुसार ईश्वर में श्रद्धा रखना और ईश्वर की प्रार्थना करना। (सांख्यानाम्) (जिस का ज्ञान) वेदों के ज्ञानियों द्वारा मिलता है। (कर्म-योगेन) (और उनमें से दूसरा है) कर्म योग, अर्थात धार्मिक अनिवार्य कर्म करना। (योगिनाम्) (जिसका ज्ञान) कर्म योगियों से मिलता है।

अनुवाद

अनघ । ईश्वर ने कहा, हे अर्जुन! इस संसार में धर्म और ईश्वर के प्रति जो आदरपूर्ण भाव (या श्रद्धा) है, उसके दो भाग हैं, जो मेरे द्वारा पहले ही (श्लोक नं. २:३९ में) कहा जा चुका है। उनमें से एक है ज्ञान योग, अर्थात वैदिक ज्ञान के अनुसार ईश्वर के में श्रद्धा रखना, और ईश्वर की प्रार्थना करना । (जिसका ज्ञान) वेदों के ज्ञानियों द्वारा मिलता है। (और उनमें से दूसरा है) कर्म योग, अर्थात धार्मिक अनिवार्य कर्म करना, (जिसका ज्ञान) कर्म योगियों से मिलता है।