Home Chapters About



अध्याय 3 ,श्लोक 35



श्लोक

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥35॥

श्रेयान् स्वधर्मः विगुणः पर-धर्मात् सु-अनुष्ठितात् स्व-धर्मे निधनम् श्रेयः पर धर्मः भयआवहः
।।३५।।

शब्दार्थ

(स्वधर्मः) (हे अर्जुन) अपने कर्तव्य को ( विगुणः) कम कुशलता से करना (पर-धर्मः) यह दुसरों के कर्तव्य को (सु-अनुष्ठितात् ) कुशलता से करने से (श्रेयान्) अधीक श्रेष्ठ है। (स्व-धर्मे:) अपने कर्तव्य का पालन करते हुए (निधनम् ) मृत्यु पाना (श्रेयः) यही सबसे श्रेष्ठ है। (दुसरों के कर्तव्य करने में) (भयआवहः) (असफलता का) ड़र है।

अनुवाद

(हे अर्जुन) अपने कर्तव्य को कम कुशलता से करना यह दुसरों के कर्तव्य को कुशलता से करने से अधीक श्रेष्ठ है। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मृत्यु पाना यही सबसे श्रेष्ठ है। (दुसरों के कर्तव्य करने में) (असफलता का ) ड़र है। (अर्थात जब ईश्वर ने अर्जुन को क्षत्रिय बनाया है तो अपना कर्तव्य करना (धर्म युद्ध करना ही) अर्जुन के लिए श्रेष्ठ है। अर्जुन का एक पंडीत की तरह व्यवहार करने से शायद अधर्म का नाश ना हो।