Home Chapters About



अध्याय 4 ,श्लोक 16



श्लोक

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः । तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥16॥

किम कर्म किम् अकर्म इति कवयः अपि अत्र मोहिताः । तत् ते कर्म प्रवक्ष्यामि यत् ज्ञात्वा मोक्ष्यसे अशुभात् ।। १६ ।।

शब्दार्थ

(कर्म) कर्म (धार्मिक कर्तव्य) (किम्) क्या है (और) (अकर्म) अकर्म (वह कर्म जो नहीं करने चाहिए वह) (किम्) क्या है। (इति) इस प्रकार ( अंग ) इस विषय में (कवयः) विद्वान (अपि) भी (मोहिताः) भ्रमित (उलझन में पड़ जाते हैं, अब) (तते) वह (कर्म) कर्म-तत्त्व (मैं) (ते) तुम्हें (प्रवक्ष्यामि ) समझाऊंगा (यत) जिसको (ज्ञात्वा) जानकर (तुम) (अशुभात्) अशुभ (कर्म करने से) (मोक्ष्यसे) मुक्त हो जाओगे।

अनुवाद

कर्म (धार्मिक कर्तव्य) क्या है? (और) अकर्म (वह कर्म जो नहीं करने चाहिए वह ) क्या है? इस प्रकार इस विषय में विद्वान भी भ्रमित ( उलझन में पड़ जाते हैं,) अब वह कर्म-तत्त्व (मैं) तुम्हें समझाऊंगा। जिसको जानकर (तुम ) अशुभ (कर्म करने से) मुक्त हो जाओगे।