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अध्याय 4 ,श्लोक 23



श्लोक

गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः । यज्ञायाचरतः कर्म समग्र प्रविलीयते ॥23॥

गत-सङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञान-अवस्थितः चेतसः । यज्ञाय आचरतः कर्म समग्रम् प्रविलीयते ।। २३ ।।

शब्दार्थ

(मुल्कस्य) (ऐसा व्यक्ति) मुक्त हो जाता है (गत सङ्गस्य) एक ईश्वर के साथ किसी और की उपासना करने के रास्ते से (ज्ञान) ज्ञान (के प्रकाश में वह) (चेतसः) अपने मन और बुद्धि को (अवस्थित) एक ईश्वर की श्रद्धा में स्थित कर देता है। (कर्म) (वह अपने) कर्म (केवल) ( यज्ञाय) ईश्वर को प्रसन्न करने वाले (आचरतः) करता है। (समग्रम् ) (इस प्रकार वह) पूर्णता (प्रविलीयते) (सारे पाप करने के अवसर और कारणों से) मुक्त हो जाता है।

अनुवाद

(ऐसा व्यक्ति) मुक्त हो जाता है एक ईश्वर के किसी और की उपासना करने के रास्ते से। ज्ञान (के प्रकाश में वह ) अपने मन और बुद्धि को एक ईश्वर की श्रद्धा में स्थित कर देता है। वह अपने कर्म (केवल) ईश्वर को प्रसन्न करने वाले करता है। (इस प्रकार वह) पूर्णता (सारे पाप करने के अवसर और कारणों से) मुक्त हो जाता है।