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अध्याय 4 ,श्लोक 25



श्लोक

दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते। ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥25॥

दैवम् एव अपरे यज्ञम् योगिनः पर्युपासते । ब्रह्म अग्नौ अपरे यज्ञेम् यज्ञेन एव उपजुह्वति ।।२५।।

शब्दार्थ

(एरां) नि:संदेह (अपरे) कुछ सज्जन पुरुष (दैवम्) ईश्वर की (योगिन) भक्ति और (यज्ञम्) कर्तव्यपालन के लिए (ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए) (ब्रह्म) ईश्वर को (अग्नौ) ‘आदि' (सबसे पहला और महान ) मानते हैं। (पर्युपासते) और उसकी प्रार्थना करते हैं। (अपरे) कुछ (दुसरे) सज्जन पुरुष (यज्ञने) ईश्वर को प्रसन्न करने वाले कर्म के लिए (यज्ञम्) अपने सत्कर्म (उपजुह्वति) ईश्वर को अर्पित करते हैं।

अनुवाद

नि:संदेह कुछ सज्जन पुरुष ईश्वर की भक्ति और कर्तव्यपालन के लिए (ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए) ईश्वर को आदि (सबसे पहला और. महान) मानते हैं। और उसकी प्रार्थना करते हैं। कुछ (दुसरे) सज्जन पुरुष ईश्वर को प्रसन्न करने वाले कर्म के लिए अपने सत्कर्म ईश्वर को अर्पित करते हैं। (ईश्वर को प्रसन्न करने वाले कर्म निम्नलिखित हैं)