Home Chapters About



अध्याय 4 ,श्लोक 35



श्लोक

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भुतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥35॥

यत् ज्ञात्वा न पुनः मोहम् एवम् यास्यसि पाण्डव । येन भूतानि अशेषेण द्रक्ष्यसि आत्मनि अथो मयि ।। ३५ ।।

शब्दार्थ

(पाण्डव) हे अर्जुन! (यत) इस (दिव्य ज्ञान) को (ज्ञात्वा ) जानकर (तुम ) ( पुनः) फिर से ( मोहम) भ्रम ( गुमराही) में (न) नहीं (यास्यसि) पड़ोगे (येन) इस (दिव्य ज्ञान द्वारा तुम) (भूतानि अशेषेण) सम्पूर्ण प्राणियों को (आत्मानि) मुझसे (द्रक्ष्यसि) देखोगे (अथो) दुसरे शब्दों में (उनका निर्माता) (मयि) मैं (ही हूँ ऐसा देखोगे)

अनुवाद

हे अर्जुन! इस (दिव्य ज्ञान) को जानकर ( तुम ) फिर से भ्रम (गुमराही) में नहीं पड़ोगे। इस (दिव्य ज्ञान द्वारा तुम) सम्पूर्ण प्राणियों को मुझसे देखोगे। दुसरे शब्दों में (उनका निर्माता) मैं (ही हूँ ऐसा देखोगे ) ।

नोट

श्लोक नं. ९.५ में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि न ईश्वर किसी में रहता है और न कोई ईश्वर में रहेगा। इस कारण इस श्लोक नं ४. ३१ के अनुवाद में हमने 'आत्मानि' का अर्थ 'ईश्वर से' लिया है।