Home Chapters About



अध्याय 4 ,श्लोक 38



श्लोक

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥38॥

न हि ज्ञानेन सदृशम् पवित्रम् इह विद्यते ।
तत् स्वयम् योग संसिद्धः कालेन आत्मनि विन्दति ।। ३८ ।।

शब्दार्थ

(हि) नि:संदेह! (ज्ञानेन) इस दिव्य ज्ञान (सहशम्) के जैसा (इह) इस संसार में (और) (न) (कोई साधन) नहीं (विद्यते) है (पवित्रम्) (जो पापों से) पवित्र करे (तत्) इस (दिव्य ज्ञान के द्वारा) (स्वयम्) (व्यक्ति) स्वयम् (योग) ईश्वर से जुड़ जाता है (कालेन) और समय के बितने के साथ (आत्मनि) वह अपने अन्दर (संसिद्ध) संपूर्ण (विन्दति) (शान्ति) पाता है। (नोट-योग का अर्थ ईश्वर से जुड़ना भी है।)

अनुवाद

नि:संदेह! इस दिव्य ज्ञान के जैसा इस संसार में (और) (कोई साधन) नहीं है (जो पापों से) पवित्र करे। इस (दिव्य ज्ञान के द्वारा) (व्यक्ति) स्वयम् ईश्वर से जुड़ जाता है और समय के बितने (गुजरने) के साथ वह अपने अन्दर संपूर्ण (शान्ति) पाता है।