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अध्याय 4 ,श्लोक 6



श्लोक

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् । प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥6॥

अजः अपि सन् अव्ययात्मा भूतानाम् ईश्वरः अपि
सन् । प्रकृतिम् स्वाम् अधिष्ठाय सम्भवामि आत्म मायया ।। ६ ।।

शब्दार्थ

(अपि) नि:संदेह (अजः) मैं (ईश्वर) जन्म नहीं लेता (सन् ) हूँ (अव्ययात्मा) मैं (ईश्वर) अविनाशी हूँ (अर्थात मृत्यु मेरे लिए नहीं है ) (भूतानाम ईश्वरः) (और मैं) सर्व प्राणियों का (जन्मदाता) ईश्वर (अपि सन्) भी हूँ। (स्वाम्) (मैं) अपनी ( प्रकृतिम्) ईश्वरीय शक्ति से (सम्भवामि ) ( संसार में दूत) उत्पन्न करता हूँ। (आत्म-मायया) (और अपनी ईश्वरीय शक्ति से) ऐसी मायावी प्रणाली (अधिष्ठाय) स्थापित करता हूँ (जो मनुष्य का मार्गदर्शन भी करे और परीक्षा भी ले।)

अनुवाद

नि:संदेह मैं (ईश्वर) जन्म नहीं लेता हूँ। मैं (ईश्वर) अविनाशी हूँ (अर्थात मृत्यु मेरे लिए नहीं है) (और मैं) सर्व प्राणियों का (जन्मदाता) ईश्वर हूँ। (मैं) अपनी ईश्वरीय शक्ति से (संसार में दूत) उत्पन्न करता हूँ। (और अपनी ईश्वरीय शक्ति से) ऐसी मायावी प्रणाली स्थापित करता हूँ जो मनुष्य का मार्गदर्शन भी करे और परीक्षा भी ले।