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अध्याय 4 ,श्लोक 8



श्लोक

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥8॥

परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्म संस्थापन-अर्थाय सम्भवामि युगेयुगे ।।८।।

शब्दार्थ

(साधुनाम) (सत्य मार्ग पर चलने वाले) धार्मिक लोगों की (परित्राणाय ) रक्षा करने के लिए (दुष्कृताम् ) अधर्मियों का (विनाशाय) विनाश करने (च) और (धर्म) धर्म की (संस्थापन अर्थाय) भलीभाँति स्थापना करने के लिए मैं (युगे युगे) हर युग में (सम्भवामि) (दूत) उत्पन्न करता हूँ (जन्म देता हूँ।)

अनुवाद

(सत्य मार्ग पर चलने वाले) धार्मिक लोगों की रक्षा करने के लिए। अधर्मियों का विनाश करने और धर्म की भलीभाँति स्थापना करने के लिए मैं हर युग में (दूत) उत्पन्न करता हूँ (जन्म देता हूँ।

नोट

1.ईश्वर ने श्री कृष्ण जी को महाभारत के युग में भेजा। आपने (श्री कृष्ण जी) ने अधर्मियों का विनाश करके फिर से धर्म की स्थापना की। 2.स्वामी राम सुखदास महाराज ने श्लोक नं. १४.३ में सम्भव का अर्थ उत्पत्ति और श्लोक नं. १४.४ में सम्भवन्ति का अर्थ पैदा होते हैं ऐसा लिखा है। स्वामी मुकन्दानंद ने भी यही अर्थ अपने अनुवाद में लिया है। तथा स्वामी राम सुखराम जी ने श्लोक नं. ९.७ और ९.८ में विसृजामि का अर्थ रचना करना लिखा है। 3.पवित्र कुरआन में ईश्वर ने कहा, “और हमने हर समुदाय में कोई न कोई प्रेषित (पैगम्बर) भेजा ताकि (मानवजाति) ईश्वर की प्रार्थना करें और मूर्तिपूजा से बचें।” (सूरे-अन-नहल (१६) आयत ३६)