न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥20॥
न प्रहृष्येत् प्रियम् प्राप्य न उद्विजेत् प्राप्य च अप्रियतम् । स्थिरबुद्धिः असम्मूढः ब्रह्म-वित् ब्रह्मणि स्थितः ।।२०।।
शब्दार्थ(स्थिर बुद्धिः) (वह सच्चा व्यक्ति) जिसकी बुद्धि (एक ईश्वर की श्रद्धा पर) स्थिर है। (असम्मूढः) (जिसे ईश्वर के आदेश में कोई ) संदेह नहीं (ब्रह्मवित्) जिसे ईश्वर के आदेश का संपूर्ण ज्ञान है। (ब्रह्मणि स्थितः) जो ईश्वर के आदेश पालन पर दृढता से स्थित है। (प्रियम्) (वह) प्रिय वस्तु को ( प्राप्य) प्राप्त करके (न) न ( प्रहृष्यते) बहुत प्रसन्न होता है (च) और (अप्रियतम्) अप्रिय वस्तु या स्थिती ( प्राप्य ) प्राप्त करके (उद्विजेत्) न बहुत दुःखी होता है।
अनुवाद(वह सच्चा व्यक्ति) जिसकी बुद्धि (एक ईश्वर की श्रद्धा पर) स्थिर है। (जिसे ईश्वर के आदेश में कोई) संदेह नहीं। जिसे ईश्वर के आदेश का संपूर्ण ज्ञान है। जो ईश्वर के आदेश पालन पर दृढता से स्थित है। (वह) प्रिय वस्तु को प्राप्त करके न बहुत प्रसन्न होता है और अप्रिय वस्तु या स्थिती प्राप्त करके न बहुत दुःखी होता है।