Home Chapters About



अध्याय 5 ,श्लोक 3



श्लोक

ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति । निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥3॥

ज्ञेयः सः नित्य सन्यासी यः न द्वेष्टि न काङ्क्षति । निर्द्वन्द्रः हि महाबाहो सुखम् बन्धात् प्रमुच्यते ||३||

शब्दार्थ

(महाबाहो) हे अर्जुन! (सः) उस व्यक्ति को (नित्य ) हमेशा (संन्यासी) संन्यासी (ज्ञेय) समझना चाहिए (न) (जो) न (द्वेष्टि) (किसी से) द्वेष करता है (और) (न) न (किसी से) (काड़ङ्क्षति) आशा करता है (और) (निर्द्वन्द्वः) जो सुख दुःख में संयम रखता है। (हि) नि:संदेह (बन्धात्) वह अनिवार्य कर्तव्य पूरे करके उनके बंधन से (प्रमुच्यते) मुक्त हो जाता है (सुखम्) और सुखी रहता है।

अनुवाद

हे अर्जुन! उस व्यक्ति को हमेशा संन्यासी समझना चाहिए (जो) न (किसी से) द्वेष करता है (और) न (किसी से) आशा रखता है। (और) जो सुख-दुःख में संयम रखता है। नि:संदेह वह में अनिवार्य कर्तव्य पूरे करके उनके बंधन से मुक्त हो जाता है और सुखी रहता है।