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अध्याय 6 ,श्लोक 12



श्लोक

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥12॥

तत्र एक अग्रम् मनः कृत्वा यत-चित्त इन्द्रिय क्रियः | उपविश्य आसने युज्ज्यात् योगम् आत्म विशुद्धये ।। १२ ।।

शब्दार्थ

(तत्र) इस (आसने) आसन पर ( उपविश्य ) बैठकर, (चित्त) मन, (क्रियः) इच्छाओं और कर्मों को (यत्) वश में ( कृत्वा ) करके (मनः) मन में (एक) केवल एक (अग्रम) सबसे श्रेष्ठ ईश्वर को ( रखते हुए) (युज्जायात्) ईश्वर की प्रसन्नता (आत्म) और मन को (बुरे कर्मों से) (विशुद्धये) पवित्र करने के लिए (योगम्) ईश्वर के स्मरण में हो जाओ।

अनुवाद

इस आसन पर बैठकर, मन, इच्छाओं और कर्मों को वश में करके, मन में केवल एक सबसे श्रेष्ठ ईश्वर को (ख हुए), ईश्वर की प्रसन्नता और मन को (बुरे कर्मों से) पवित्र करने के लिए ईश्वर के स्मरण में लीन हो जाओ।