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अध्याय 6 ,श्लोक 4



श्लोक

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ॥4॥

यदा हि न इन्द्रिय अर्थेषु न कर्मसु अनुषज्जते । सर्व-सड़कल्प संन्यासी योग-आरुढः तदा उच्यते ।। ४ ।।

शब्दार्थ

(उच्यते) ईश्वर ने कहा कि (यदा) जब (सन्यासी) सन्यासी (सड्कल्प) इस बात का संकल्प करता है कि (न) न (तो वह) (इन्द्रिय अर्थेषु) आनंद का अनुभव कराने वाले वस्तुओं का उपयोग करेगा (न) (और) न (सर्व) सब (अनुषजते) अनावश्यक (कर्मसु) काम (करेगा) (तदा) तब (वह व्यक्ति) (योग आरुढः) भक्ति के अंतिम चरण में होता है।

अनुवाद

ईश्वर ने कहा की जब सन्यासी इस बात का संकल्प करता है कि न (तो वह) आनंद का अनुभव कराने वाले वस्तुओं का उपयोग करेगा। (और) न सब अनावश्यक काम (करेगा)। तब (वह व्यक्ति) भक्ति के अंतिम चरण में होता है।