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अध्याय 6 ,श्लोक 6



श्लोक

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः । अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥6॥

बन्धुः आत्मा आत्मनः तस्य यैन आत्मा एव आत्मना जितः । अनात्मनः तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एव शत्रु-वत् ।।६।।

शब्दार्थ

(येन) जिस (आत्मनः) व्यक्ति ने (आत्मा) अपनी आत्मा (को) (जितः) जीत लिया (तस्य ) उसके लिए (आत्मा) उसकी आत्मा (बन्धु) मित्र हो जाती है (तु) किन्तु (आत्मा एवं) वही आत्मा (आत्माना) उस व्यक्ति की (अनात्मानः) जिसने उसे वश में नहीं किया है। ( शत्रूत्वे वर्तेत ) शत्रु होती है (एव) और नि:संदेह (शत्रु वत्) सदैव शत्रु की तरह व्यवहार करती है।

अनुवाद

जिस व्यक्ति ने अपनी आत्मा (को) जीत लिया, उसके लिए उसकी आत्मा मित्र हो जाती है। किन्तु वही आत्मा उस व्यक्ति की, जिसने उसे वश में नहीं किया है, शत्रु होती है और नि:संदेह सदैव शत्रु की तरह व्यवहार करती है।