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अध्याय 8 ,श्लोक 10



श्लोक

प्रयाण काले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्- स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ||10||

प्रयाण-काले मनसा अचलेन भक्त्या युक्तः योग बलेन च एव । भुवोः मध्ये प्राणम् आवेश्य सम्यक्सः तम् परम् पुरुषम् उपैति दिव्यम् ।।१०।।

शब्दार्थ

(योग बलेन) (सज्जन व्यक्ति जो अपनी) प्रार्थना की शक्ति से ( प्राणम्) अपनी सांस को (अपने मन को ) (भ्रुवोः मध्ये) दो भौओं के मध्य में (सम्यक्सः) पूरी तरह से (आवेश्य ) स्थित करता है। (अर्थात बलपूर्वक अपने मन को ईश्वर के ध्यान में स्थित करता है) (भक्तया युक्तः) और ऐसे ही जीवन भर ईश्वर की प्रार्थना में व्यस्त रहता है । ( प्रयाण-काले) जीवन के अंतिम क्षणों में (मनसा अचलेन) (वह) अपने मन को किसी ओर भटकने नहीं देता ( एवं ) नि:संदेह (सः) वह (पवित्र व्यक्ति) (तम्) उस (परम पुरुषम् ) महान ईश्वर की (दिव्यम्) दिव्य स्वर्ग को (उपैति) पा लेता है।

अनुवाद

(सज्जन व्यक्ति जो अपनी) प्रार्थना की शक्ति से अपनी सांस को (अपने मन को ) दो भौऔ (Eyebrow) के मध्य में पूरी तरह से स्थित करता है। (अर्थात बलपूर्वक अपने मन को ईश्वर के ध्यान में स्थित करता है)। और ऐसे ही जीवन भर ईश्वर की प्रार्थना में व्यस्त रहता है। जीवन के अंतिम क्षणों में (वह) अपने मन को किसी ओर भटकने नहीं देता। निःसंदेह वह (पवित्र व्यक्ति) उस महान ईश्वर की दिव्य स्वर्ग को पा लेता है।