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N-2.1 रुह और आत्मा का परिचय - रुह

रुह और आत्मा के अंतर को समझना बहुत कठिन है। विश्व में ९९ प्रतिशत लोग इसके अंतर को नहीं जानते हैं।

पहले मैं आपको वह प्रमाण और (सबूत) (साक्ष्य) दूँ कि दोनों अलग-अलग हैं, तो आपको विश्वास होगा, और आप इस अध्याय को रुचि से पढ़ोगे।

१) भगवद् गीता के कुछ श्लोक इस प्रकार हैं।

यः एनम् वेत्ति हन्तारम् यः च एनम् मन्यते हतम् |
उबौ तौ न विजानीतः न अयम् हन्ति न हन्यते ।।२.१९।।


(य) जो मनुष्य ( एवम् ) इस (अविनाशी रुह ) को (हन्तारम्) मारने वाली ( वेत्ति) मानता है (च) और (य) जो मनुष्य (एनम् ) इस (रुह को) (हतम्) मरने वाली मानता है (उभौ) यह दोनों (न विजानीत) कुछ नहीं जानते। (एनम्) यह रुह (न) न (हन्ति) किसी का वध करती है। (न) (और) न (हन्यते) मरती है।

जो मनुष्य इस (रुह) को मारने वाली मानता है और जो मनुष्य इस (रुह को) मरने वाली मानता है यह दोनों कुछ नहीं जानते। यह रुह न किसी
का वध करती है। (और) न मरती है।

२) न जायते म्रियते वा कदाचित् न अयम् भूत्वा भविता वान भूयः ।
अजः नित्यः शाश्वतः अयम् पुराणः न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।२.२०।।


(अयम्) यह (रुह) (न) न (जायते) जन्म लेती है (वा) और (न) न (म्रियते) मरती है (वा)
और किसी भी समय (न) न ( भूत्वा) इसका अस्तित्व था (भविता) न इसका अस्तित्व है। (न भूयः) न इस का अस्तित्व होगा। (अयम्) यह (रुह) (पुराण) सबसे प्राचीन है। (शरीरे ) यह शरीर के (हन्यमाने) मृत्यु के साथ ( न हन्यते) नहीं मरती।

यह (रुह) न जन्म लेती है और न मरती है और किसी भी समय न इसका अस्तित्व था न इस का अस्तित्व है। न इसका अस्तित्व होगा। यह (रुह) सबसे प्राचीन है। यह शरीर के मृत्यु के साथ नहीं मरती ।

३) अव्यक्तः अयम् अचिन्त्यः अयम् अविकार्यः अयम् उच्यते।
तस्मात् एवम् विदित्वा एनम् न अनशोचितुम अर्हसि ।।२.२५।।


(उच्यते) ईश्वर ने कहा ( अयम) यह (रुह ) (अव्यकतः) अदृश्य न दिखाई देने वाली (अयम) यह (रुह) (अचिन्त्य ) न समझ में आने वाली (अयम्) यह (रुह) अविकार्य न बदलने वाली है (तस्मात्) इसलिए (अयम) इस (रुह) को (विदित्या) जानने के बाद (अर्हसि ) तुम्हें अवश्य (अनुशोचितुम) चिंता नहीं करनी चाहिए।

ईश्वर ने कहा यह (रुह) अदृश्य न दिखाई देने वाली है, यह (रुह) न समझ में आने वाली है यह (रुह) न बदलने वाली है। इसलिए इस (रुह) को जानने के बाद तुम्हे अवश्य चिंता नहीं करनी चाहिए।

४) उद्धरेत् आत्मना आत्मानम् न आत्मानम् अवसादयेत् ।
आत्मा एवं हि आत्मनः बन्धुः आत्मा एरा रिपुः आत्मनः ।।६.५॥


(हि) नि:संदेह (आत्मानम्) मनुष्य को चाहिए कि (आत्मन) अपनी आत्मा को (उद्धाते) ऊपर उठाए (पवित्र करें) (आत्मानम्) मनुष्य को चाहिए कि (अवसादेयते) (अपनी आत्मा को) नीचे की तरफ (न) न ले जाए (अपवित्र न करे)। (आत्मा) आत्मा (आत्मना) मनुष्य की (बन्धु) मित्र है (अत्मना) और आत्मा (ही) (आत्मना) मनुष्य की (रिपुः) शत्रु भी है।

नि:संदेह मनुष्य को चाहिए कि अपनी आत्मा को ऊपर उठाए (पवित्र करें)। मनुष्य को चाहिए कि (अपनी आत्मा को नीचे की तरफ) न ले जाए (अपवित्र न करें)। आत्मा मनुष्य की मित्र है, और आत्मा (ही) मनुष्य की शत्रु भी है।

५) बन्धु आत्मा आत्मनः तस्य येन आत्मा एवं आत्मना जितः । अ
नात्मनः तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एवं शत्रु-वत् ॥६:६॥


(येन) जिस (आत्मनः) व्यक्ति ने (आत्मा) अपनी आत्मा (को) (जित:) जीत लिया (तस्य) उसके लिए (आत्मा) उसकी आत्मा (बन्धु) मित्र हो जाती है (तु) किन्तु (आत्मा एवं) वही आत्मा (आत्माना) उस व्यक्ति की (अनात्मान:) जिसने उसे वश में नहीं किया है। (शत्रूत्वे वर्तेत) शत्रु होती है (एव) और नि:संदेह (शत्रु वत्) सदैव शत्रु की तरह व्यवहार करती है।

जिस व्यक्ति ने अपनी आत्मा (को) जीत लिया उसके लिए उसकी आत्मा मित्र हो जाती है। किन्तु वही आत्मा उस व्यक्ति की जिसने उसे वश में नहीं किया है, शत्रु होती है और नि:संदेह सदैव शत्रु की तरह व्यवहार करती है ।

• जिस चीज़ का पहले तीन श्लोकों में वर्णन हैं, उसके गुण यह है कि वह;

१. अजन्मा है,
२. अमर है
३. अस्तित्व नहीं था, न है, और न होगा।
४. न यह किसी को हानि पहुँचाती है और न इस की हानि हो सकती है।
५. इसे देखा नहीं जा सकता है।
६. इसे समझा नही जा सकता है।
७. इसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता है।

• बाद के जो दो श्लोक हैं अर्थात श्लोक नं. ६.५ और ६.६ में जिसका वर्णन है उसे संवारा जा सकता है और खराब और नीचा भी किया जा सकता है।

अब आप सोचो कि यह दोनों चीजें एक हो
सकती हैं ? नि:संदेह नहीं, इसमें पहली रुह है और दूसरी आत्मा हैं।

रुह का सबसे अधिक वर्णन भगवद् गीता में है। यदि इसके पहले हम अन्य ग्रन्थों में इसके बारे में क्या लिखा है वह देखते हैं।

बाईबल :-

• बाईबल की एक आयत का अर्थ इस प्रकार है।
The words of God is living and active, sharper than any two-edged award, piercing to the division of Soul and Spirit, of joints and of marrow and discerning the thought and intentions of the heart. (Hebrews 4:12, Biblia.com)

ईश्वर के शब्द जीवित हैं और सक्रीय हैं। यह दो धारी तलवार से तेज हैं। यह आत्मा (Soul) और रुह (Spirit) को अलग अलग कर सकते हैं। यह जोड़ और हड्डी के गुदे तक को अलग अलग कर सकते हैं। (अर्थात कोई जटिल धार्मिक समस्या हो तो उसका सही उत्तर बता सकते हैं।) यह सोच और उद्देश्य को पहचान सकते हैं। (Hebrews 4:12, Biblia.com)

इस आयत से यह स्पष्ट होता है कि आत्मा (Soul) और रुह (Spirit) यह दो अलग अलग चीज़ हैं ।

• कुरआन में रुह का बहुत कम वर्णन है। पवित्र कुरआन की एक आयत इस प्रकार है।

(ईश्वर ने फरिश्तों से कहा) तो जब मैं आदम को पूरा बना चुकूं और उसमें अपनी रुह फूंक दूं तो तुम उसके आगे सजदे में गिर जाना। (पवित्र कुरआन १५:२९)

इस आयत से जो बात स्पष्ट होती है कि रुह को ईश्वर ने अपनी रुह में से मनुष्य के शरीर में फूंका है, तो यह ईश्वर की तरफ से है। और सदैव पवित्र रहेगी। दुसरी बात यह कि इसे फुंका गया है। इसको डाला नहीं गया है या इसका निर्माण नहीं किया गया है। इस कारण इसका अस्तित्व नहीं है।

• इसाई धर्म में १२ बाईबल है। किन्तु ८ बाईबल में पैगंबर ईसा को ईश्वर का पुत्र नहीं कहा गया है इसलिए इसाई समुदाय इन्हें नहीं मानते हैं। ऐसी ही एक बाईबल का नाम Gospel of Barnabas गॉस्पेल ऑफ बरनाबास है।

इसमें लिखा है कि जब ईश्वर ने आदम में रुह फूंका तो आप जीवित हो गए। आदम ने स्वर्ग में कलमा लिखा देखा तो ईश्वर से पूछा की इसका अर्थ क्या है? (Gospel of Barnabas chapter-39)


• बरनाबास की बाईबल की आयत से जो बात हम समझ सकते है वह यह है कि मनुष्य जीवित इसी रुह के कारण है। जब आदमी में रुह फूंकी गई तो वह जीवित हो गए।

आत्मा शरीर में न हो तो भी मनुष्य जीवित रहता है। मनुष्य जब सो जाता है तो उसकी आत्मा शरीर से अलग हो जाती है, यह बात कुरआन में सूरह नं. ३९, आयत नं. ४२ और भगवद् गीता में अध्याय ८ श्लोक नं. १९ में है।

तो के जीवित रहने का एक कारण यह मनुष्य रुह है ।

• जो दुसरी बात हमको बरनाबास बाईबल से समझ में आती है वह यह है कि मनुष्य में बुद्धि या विवेक (Conscience) इसी रुह के कारण है। आदम जैसे ही जीवित हुए उन्होंने ईश्वर से उस कलमें के बारे में प्रश्न किया जो उन्होंने स्वर्ग में लिखा देखा था।

ईश्वर ने अपनी रुह में से आदम में रुह फूंका था। ईश्वर स्वयम् अनंत बुद्धि(Infinite Intelligence) है। तो जो ईश्वर ने आदम में फूंका था वह हो सकता है कि अपनी अनंत बुद्धि में से सीमित बुद्धि मनुष्य को दी हो।

• मनुष्य के पहले धरती पर बिल्कुल मनुष्य के समान होमोसेपियन (Homosaptians) नाम के प्राणी रहते थे। वह दो लाख वर्ष से अधिक अवधि तक धरती पर रहे। किन्तु अपने लिए कभी एक झोपडा तक न बनाया। वह जानवरों की तरह ही रहते थे और विलुप्त हो गए। मनुष्य केवल १५ हजार वर्ष से धरती पर है और पूरी धरती को बदल डाला। यह उसकी बुद्धि का कमाल है जो रुह के रुप में ईश्वर ने उसमें फुंका है।

• ईश्वर एक है, और ईश्वर ने अपनी रुह में से मनुष्य में रुह फूंका है, इस कारण सबकी रुह एक समान है। भगवद् गीता के श्लोक नं. १३.६ से १३.९ में जो मनुष्य में सतगुणों का वर्णन है वह इसी रुह के कारण है।

यह कभी दूषित नहीं होगी। मनुष्य कितना भी पाप कर ले उसकी रुह उसे हमेशा गलत काम करने से रोकती है। इस कारण इसे अन्तरात्मा और विवेक भी कहते हैं।

• सबसे अधिक रुह का वर्णन भगवद् गीता में है। रुह विषय में जो १२ श्लोक हैं वह आप स्वयम् इस पवित्र ग्रंथ भगवद् गीता में पढ़िए जो अध्याय नं. २ में श्लोक नं. १९ से ३० तक है। इनको पढ़ते समय आप एक बात नोट करना कि भगवद् गीता में आत्मा शब्द का उपयोग बहुत बार हुआ है किन्तु इन १२ है श्लोकों में रुह का वर्णन करते समय ईश्वर ने कभी एक बार भी इसे आत्मा नहीं कहा।