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N-1.9 ईश्वर की प्रार्थना कैसे करे ?

योगी युज्जीत सततम् आत्मानम् रहसि स्थितः ।
एकाकी यत-चित्त-आत्मा निराशी: अपरिग्रहः ॥६.१०॥


ईश्वर की प्रार्थना करने वाले को चाहिए कि ईश्वर की प्रार्थना के लिए सदैव अपने आपको शान्त स्थान पर ले जाए। एकांत में अपने आपको स्थित करके, नम्रता से, इच्छाओं को त्याग कर अपने मन और बुद्धि को ईश्वर के ध्यान में लगाए ।

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरम् आसनम् आत्मनः ।
न अति उच्छ्रितम् न अति नीचम् चैल-अजिन कुश उत्तरम् ।।६.११॥


पवित्र धरती जो न बहुत अधिक ऊंची हो और न बहुत अधिक नीची हो, उस पर घास अथवा पतला मुलायम वस्त्र अथवा मृगछाला बिछाकर अपने आपको मजबूती से स्थित करके बैठ जाए।

तत्र एक-अग्रम् मनः कृत्वा यत-चित्त इन्द्रिय क्रियः ।
उपविश्य आसने युज्यात् योगम् आत्म विशुद्धये ।।६.१२।।


इस आसन पर बैठकर, मन, इच्छाओं और कर्मों को वश में करके, मन में केवल एक सबसे श्रेष्ठ ईश्वर को (रखते हुए), ईश्वर की प्रसन्नता और मन को (बुरे कर्मों से) पवित्र करने के लिए ईश्वर के स्मरण में लीन हो जाओ।

समम् काय शिर: ग्रीवम् धारयन् अचलम् स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नातिका अग्रम् स्वम् दिश: च अनवलोकयन् ॥६.१३।।


शरीर सर और गर्दन को सीधा रखकर मन को किसी (की ओर) न भटकाकर, एक ईश्वर की याद को स्थिर करके, किसी भी दिशा में न देखते हुए, अपनी नाक के अगले भाग की जगह पर देखते हुए।

प्रशान्त आत्मा विगत-भी: ब्रह्मचारि-व्रते स्थितः
मन: संयम्य मत् चित्त: युक्त: आसीत मत् परः ॥६.१४॥


शान्त मन और भय के बिना दृढ़ संकल्प के साथ कि ईश्वर के आदेश अनुसार जीवन व्यतीत करेंगे
अपने विचारों पर संयम रखो और मुझे सबसे महान मानते हुए बैठो, और मुझमें अपने ध्यान को लगाओ।

युजन् एवम् सदा आत्मानम् योगी नियत-मानसः ।
शान्तिम् निर्वाण-परमाम् मत्-संस्थाम् अधिगच्छति ॥६.१५॥


इस तरह भक्त, सदैव अपने मन को वश में रखकर, नियोजित समय अनुसार भक्ति करते हुए, (संसार में) सच्ची शान्ति (और मरने के बाद) मेरे धाम यानी स्वर्ग के सबसे श्रेष्ठ शान्ति वाले धाम को पाता है।

यत्र उपरमते चित्तम् निरुद्धम् योग-सेवया ।
यत्र च एव आत्मना आत्मानम् पश्यन् आत्मनि तुष्यति ।।६.२०॥


नि:संदेह, मनुष्य जब (ईश्वर की याद में एकाग्र रहता है) (तो) स्वयम् (वह) ईश्वर के अस्तित्व का एहसास (अनुभव) करता है और संतुष्ट हो जाता है (शान्त हो जाता है) और (यह) अन्दर की शान्ति की स्थिती और मन का ईश्वर से जुड़ा होना बुरे कर्मों से बचने का कारण बनते हैं।

सुखम् आत्यन्तिकम् यत् तत् बुद्धि ग्राह्यम् अतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न च एव अयम् स्थितः चलति तत्वतः ॥६.२१।।


निःसंदेह, वह भक्त जो समझ बूझकर इच्छाओं से दूर हो जाता है। और सबसे श्रेष्ठ सुख को जान जाता है। तो फिर वह (एकाग्रता के द्वारा) उस ईश्वर की याद को स्थित करने से और सच्चाई से कभी भी नहीं हटता।

यम् लब्ध्वा च अपरम् लाभम् मन्यते न अधिकम् ततः।
यस्मिन् स्थित: न दुःखेन गुरुणा अपि विचाल्यते ।।६.२२।।


( ईश्वर की ओर से शान्ति) प्राप्त होने के बाद (वह भक्त) उस ईश्वर के अतिरिक्त किसी और (शक्ति को) अधिक लाभ देने वाला नहीं मानता। उस (शान्त) स्थिति (के बाद वह भक्त) बहुत बड़े कठीन समय में भी डगमगाता नहीं।

स: निश्चयेन योक्तव्य: योग: अनिर्विग्ण-चेतसा ।
तम् विद्यात् दुःख-संयोग वियोगम् योग-संज्ञितम् ।। ६.२३।।


मनुष्य को जानना चाहिए की एकाग्र होकर की जाने वाली ईश्वर की प्रार्थना कठीन परिस्थितीयों में पड़ने से बचा लेती है। इसलिए उस (ईश्वर की) प्रार्थना को एकाग्र मन और दृढ़ता के साथ करना चाहिए।

ध्यान योग करने की कठिनाईयाँ :-

अर्जुन उवाच
यः अयम् योगः त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एथिस्य अहम् न पश्यामि चज्वलत्वात स्थितिम् स्थिराम् ।।६.३३।।


अर्जुन ने कहा, हे कृष्ण ईश्वर की प्रार्थना के इस सबसे सही तरीके को जो आपने (मुझसे) कहा। मन के चंचल स्थिती के कारण मैं इस पर स्थिर रहना सम्भव नहीं देखता हूँ।

चज्वलम् हि मनः कृष्ण प्रमाथि बल-वत् दृढम् ।
तस्य अहम् निग्रहम् मन्ये वायोः इव सुदुष्करम् ।।६.३४।।


हे कृष्ण!, नि:संदेह, मन चंचल, उत्तेजित, बलवान, ज़िद्दी (है)। इसको वश में करना मैं वायु (हवा) (को वश में करने ) जैसा बहुत कठिन मानता हूँ।

श्री भगवान उवाच,
असंशयम् महाबाहो मनः दुर्निग्रहम् चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।।६.३५।।


ईश्वर ने कहा, हे अर्जुन! इसमें कोई संशय नहीं कि चंचल मन (को) वश में करना कठिन है। किन्तु हे अर्जुन, अभ्यास और वैराग्य से इसे वश में किया जा सकता है।

असंयत आत्मना योगः दुष्प्रापः इति मे मतिः ।
वश्य आत्मना तु यतत शक्यः अवाप्तुम् उपायतः ।।६.३६।।


बेकाबू (अनियंत्रित) मन (के कारण) ईश्वर में ध्यान लगाना कठिन है। अपनी क्षमता के अनुसार मन को वश में करने का प्रयास (करने से) (ईश्वर में ध्यान लगा) पाना सम्भव है। यह मेरा मत है।