Home Chapters About



N-18 पुनर्जन्म की वास्तविकता

पुनर्जन्म की विचारधारा (Concept) इस तरह है।

१) इन्सान मरने के बाद इसी धरती पर फिर से जन्म लेगा। परन्तु उसका दूसरा जन्म उसके पापों के अनुसार होगा। पहले जन्म में जितने अधिक पाप किए होंगे, दूसरे जन्म में उतनी अपमानजनक जीवनशैली उसे मिलेगी।

२) मृत्यु के समय यदि सूर्य दक्षिण की ओर होगा तो एक सज्जन और पवित्र मृतक को भी स्वर्ग का रास्ता नहीं मिलेगा। सूर्य जब उत्तर की ओर होगा तब ही एक सज्जन पुरुष को स्वर्ग का रास्ता मिलेगा।

३) बृहदारनायक उपनिषद में लिखा है कि जो लोक पंचाग्नी विद्या को जानते हैं और वन में रह कर ईश्वर की प्रार्थना करते हैं, केवल वही लोग स्वर्ग प्राप्त कर पाएंगे। बाकी सारे लोग मृत्यु के बाद आवागमन के चक्कर में फंसे रहेंगे।

पुनर्जन्म की और भी बहुत सारी विचारधाराएं हैं, किन्तु इस छोटी सी पुस्तक में उन सबका लिखना सम्भव नहीं है।

पुनर्जन्म का दृष्टिकोण क्यों गलत है?

• पवित्र वेद ही हिन्दू धर्म के सबसे प्रमाणिक (Authentic) ग्रन्थ हैं। और वेदों में आवागमन की बिल्कुल शिक्षा या वर्णन नहीं है। इसके विपरीत आवागमन का वेदों में विरोध किया गया है।

• पुनर्जन्म का वर्णन निम्नलिखित तीन पुस्तकों में मिलता है।
१) महाभारत
२) छांदोग्य उपनिषद
३) बृहदारण्यक उपनिषद

• महाराज विकासानन्द ब्रम्हचारी यह हिन्दू धर्म के एक ज्ञानी और प्रसिद्ध आचार्य हैं। जब उन्होंने तीनों ग्रन्थों का अध्ययन किया तो पाया की तीनों ग्रंथों में दोनों प्रकार की शिक्षाएं हैं, या पुनर्जन्म का वर्णन है। अर्थात् इन ग्रन्थों में पवित्र वेदों की तरह पुनर्जन्म नहीं होने का उल्लेख भी है। और पुनर्जन्म के होने का भी उल्लेख है।

और पुनर्जन्म होने वाले श्लोकों में बहुत मतभेद है। या अलग-अलग श्लोकों में अलग अलग बात कही गई है।

महाराज विकासानन्द जी कहते हैं कि सत्य स्थिर और एक समान रहता है। और असत्य अस्थिर और बदलता रहता है। आवागमन का दृष्टिकोण या विश्वास या सीख यह असत्य है इसलिए बदलता रहता है। (अलग-अलग ग्रन्थों में अलग-अलग वर्णन है।)

और आवागमन का न होना यह पवित्र वेदों की शिक्षा है और वेद ही सबसे प्रमाणिक है इसलिए वेदों की शिक्षा ही सही मानी जाएगी।

महाराज विकासानन्द जी ने एक पुस्तक लिखी है, जिसका नाम है "पुनर्जन्म, एक रहस्य" । इस पुस्तक में उन्होंने महाभारत, छान्दोग्य उपनिषद और बृहदारण्यक उपनिषद में बताए गए दोनों तरह की शिक्षा का वर्णन किया है, अर्थात् पुनर्जन्म के न होने के बारे में वेदों के अनुसार शिक्षा का भी वर्णन है और पुनर्जन्म होने की शिक्षा का भी वर्णन है।

हमने महाराज विकासानन्द की पुस्तक को पढ़कर इस पुस्तक में पुनर्जन्म के बारे में लिखा है।

पहले हम महाभारत का अध्ययन करते हैं और देखते हैं इसमें पुनर्जन्म के बारे में क्या लिखा है। मगर इससे पहले हम सूर्य के उत्तर और दक्षिण में होने का मरने वाले व्यक्ति के मुक्ति पर क्या प्रभाव होता है इस बारे में भी कुछ बता दें । इस ज्ञान से आपको भीष्म पितामह के शरशैय्या पर लेटे रहने का कारण समझ में आएगा।

सूर्य के उत्तर में होने का क्या अर्थ है ?

महाभारत के युद्ध के समय सूर्य दक्षिण की ओर था। गम्भीर रुप से घायल होने के बावजूद भीष्म पितामह ने अपने मृत्यु को सूर्य के उत्तर की ओर आने तक टाले रखा। तो इस अध्याय में हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि सूर्य के उत्तर में
होने का क्या अर्थ है।
• हजारों वर्ष से उत्तरी भारत के लोगों को पृथ्वी के उत्तर भाग के ऋतुओं का पूरा ज्ञान था।

• औरंगाबाद में पवनचक्की के पास एक रुस के वली की मजार (कबर) है। यानी प्राचीन काल में लोग रुस (Russia) से भारत भी आया करते थे। इसलिए भारतीय लोगों को इस बात का ज्ञान था कि जब सूर्य उत्तर की ओर होता है तो पृथ्वी के उत्तरी भाग में दिन बड़े और रातें बहुत छोटी होती हैं। नॉर्थ पोल (North pole) पर ३ महीने दिन २४ घंटे का होता है और रात नहीं होती है।

• हमारे देश में भी उत्तरी भारत के क्षेत्र में गर्मियों के मौसम में जब सूर्य उत्तर की ओर होता है तो दिन बड़े और रातें छोटी होती हैं।
• वर्ष के छ: महीने सूर्य उत्तर की ओर होता है और दिन बड़े और उज्वलित होते हैं। इसलिए समझाने के लिए वेद में यह उदाहरण दिया गया है कि स्वर्ग के रास्ते उज्वलित हैं और वह ऐसे उज्वलित हैं जैसे सूर्य उत्तर की ओर हो ।

• तो सूर्य का उत्तर की ओर होना यह उज्वलित होने का केवल उदाहरण है। सूर्य के उत्तर या दक्षिण में होने से स्वर्ग के मार्गों का कोई सम्बन्ध नहीं है।

• ऐसे श्लोक जिनमें स्वर्ग के मार्ग का वर्णन है वह निम्नलिखित हैं :

• "हम सब कौन से मार्ग से जायेंगे वह (मार्ग) यमदेव (अर्थात् परलोक का मालिक या ईश्वर) पहले ही दिखा देते हैं। वह मार्ग कभी नष्ट न होने वाला है। जिस मार्ग से पूर्वगण गये हैं, प्रत्येक प्राणी अपने-अपने कर्मों के अनुसार उसी मार्ग से जायेंगे।”
(ऋग्वेद १०-१४-२)

• “जो लोग ज्ञान रखते हैं, वे दूसरों से पहले जीवन प्रदान करने वाली सांस लेकर इस शरीर से निकल कर आकाश में पहुंचकर अपने समस्त साथियों के साथ रहते हैं। जिन मार्गों से देवताओं ने यात्रा की थी, उनसे गुजरते हुए स्वर्ग पहुंच जाते हैं।”
(अथर्ववेद : २-३४-५)

• “पवित्र करने वालों के द्वारा पवित्र होकर, ऐसे शरीर के साथ जिसमें अस्थियां न होंगी, वे प्रतापवान और प्रज्वलित होकर उजालों के संसार में पहुंचते हैं। उनके उल्लसित शरीरों को आग नहीं जलाती है। स्वर्ग लोक में उनके लिये बड़ा आनन्द है। (अथर्ववेद : ४-३४-२)

• ईश्वर को जानने वाले और उसकी प्रार्थना करने वाले मनुष्य, मरने के बाद ईश्वर की ओर उज्वल मार्ग के द्वारा (इस तरह) जाएंगे कि वहाँ (ऐसा लगेगा जैसे) छह महीने सूर्य उत्तर की ओर चला गया है, (जिसके कारण) दिन है, उजाला है और प्रकाश फैला हुआ है। (भगवद्गीता ८:२४)

• मेरे द्वारा वेदों में भी मरने के बाद इस संसार से जाने के लिए दो मार्ग बताए गए हैं। इन दोनों मार्गों में नि:संदेह एक उज्ज्वल मार्ग है और दूसरा अंधकारमय मार्ग है। एक मार्ग जन्म और मौत की बार-बार वापसी न होने वाले धाम (स्वर्ग) की ओर जाता है, और दूसरा अंधकारमय मार्ग है जो कि बार-बार जन्म और मौत की वापसी वाले (नरक के) धाम की ओर जाता है। (भगवद्गीता ८:२६)

ऊपर बताए गए श्लोकों से आप समझ सकते हैं कि,
१) यमदूत मृतक को स्वर्ग और नर्क का मार्ग पहले ही बता देता।

२) यह स्वर्ग और नर्क के मार्ग उस व्यक्ति के कर्मों के आधार पर होंगे।

३) स्वर्ग के मार्ग उसी तरह उज्वलित हैं जैसे जब सूर्य उत्तर की ओर होता है तो दिन बहुत अधिक उज्वलित रहते हैं।

४) सूर्य के उत्तर और दक्षिणायण में होने से
स्वर्ग के मार्ग का कोई सम्बन्ध नहीं है ।

• "सूर्य का उत्तर या दक्षिण में होने का स्वर्ग के मार्ग से कोई सम्बन्ध नहीं, " इस तथ्य (Fact) को बहुत सारे विद्वान भी मानते हैं। जैसे आचार्य शंकरजी ने अपनी पुस्तक "वेदान्त दर्शन" में लिखा है कि छान्दोग्य उपनिषद में लिखा है कि आत्मा सूर्य की किरणों की सहायता से ऊपर की ओर प्रवास करती है। किन्तु आप अगर कहो कि रात को सूर्य की किरणें नहीं होती हैं तो ऐसा कहना गलत है। क्योंकि सूर्य की किरणें मनुष्य के नाड़ी की गर्मी से उस समय तक हमेशा जुड़ी रहती हैं जब तक मनुष्य जीवित रहता है।

या मनुष्य जब तक जीवित रहता है उसकी नाड़ी से निकलने वाली ऊर्जा सूर्य की ऊर्जा से हमेशा सम्पर्क में रहती है। इसलिए किसी भी समय मृत्यु हो एक सज्जन मनुष्य को परलोक का उज्वलित मार्ग तलाश करने या पाने में कोई कठिनाई नहीं होती है। इसलिए ऐसा सोचना गलत है कि जब सूर्य उत्तर की ओर होगा तब ही मुक्ति मिलेगी।
( पुनर्जन्म एक रहस्य पेज नं ११)

महाभारत में पुनर्जन्म का उल्लेख

• महाकाव्य महाभारत के लेखक श्री महर्षि वेद व्यासजी ने स्वयम इस महाकाव्य में पुनर्जन्म होता है ऐसा साफ तौर पर कहीं नहीं लिखा है। परन्तु इस महाकाव्य में भीष्म पितामह की मृत्यु पुनर्जन्म की तरफ इशारा करती है। इसलिए हम यह पता करने का प्रयास करते हैं कि भीष्म पितामह की मृत्यु के बारे में जो महाभारत में लिखा है उसमें कितना सत्य है।

• भीष्म पितामह की कहानी संक्षिप्त में इस तरह है।

• महाभारत के युद्ध में आप कौरव के सेनापति थे। युद्ध के आरंभ के दस दिनों में आप बहुत वीरता से लड़े और पांडवों के लाखों सैनिकों का वध कर दिया। लेकिन जब भीष्म पितामह युद्ध में अर्जुन के तीरों से घायल होकर अपने रथ से गिरे तो उनके शरीर में इतने तीर आरपार धंसे हुए थे की उनका शरीर धरती को छुने के बदले तीरों के ऊपर ही रुका रहा था। ऐसा लगता था कि वह तीरों के चारपाई पर सो रहे हैं।

• महाभारत के युद्ध के समय "दक्षिण की ओर था। अर्थात् दक्षिणायण काल चल रहा था। कथानुसार भीष्म पितामह का ऐसा विश्वास था कि ऐसे समय एक सज्जन पुरुष की भी अगर मृत्यु होती है तो वह भी स्वर्ग का मार्ग नहीं प्राप्त कर सकता है। इस कल्पना के कारण भीष्म पितामह ने अपने पिता से अपने मृत्यु को सूर्य के उत्तर में आने तक अर्थात् उत्तरायण तक आगे बढ़ाने की आज्ञा चाही और आज्ञा मिलने पर वह बहुत दिनों तक शरशैय्या पर लेटे रहे फिर देह त्याग किया।

• महाराज विकासानन्द ब्रम्हचारी जी के शोध के अनुसार भीष्म पितामह के शरशैय्या पर मृत्यु के सम्बन्ध में जो महाभारत में श्लोक हैं वह प्रक्षिप्त हैं। अर्थात् बाद में जोड़े गए हैं। (पुनर्जन्म एक रहस्य पं. ८)

• महाराज के शोध के अनुसार भीष्म पितामह जब गम्भीर रुप से घायल होकर रथ से गिरे थे उसी समय उनकी मृत्यु हो गई थी ।

• महाराज विकासानन्द ब्रम्हचारी जी के अनुसार यह विश्वास भी गलत है कि जब सूर्य दक्षिण में होता है उस समय मरने वाले को मुक्ति नहीं मिलती।

• महाराज जी ने इन दोनों के गलत होने के जो कारण वेदों और स्वयंम महाभारत जैसे महाकाव्य से बताए हैं वह निम्नलिखित हैं:

• भीष्म पितामह की मृत्यु का वर्णन :-

• महाराज विकासानन्द ब्रम्हचारी जी के अनुसार भीष्म पितामह के पिता शंतनु को इच्छा मृत्यु का वरदान देने का अधिकार न था। क्योंकि शंतनु के दो पुत्र पहले ही मर चुके थे। अगर शंतनु को मृत्यु को आगे बढ़ाने का अधिकार होता तो उनके दोनों पुत्र क्यों मरते ?

• महर्षि श्री वेद व्यास जी हिन्दू धर्म के सबसे बड़े विद्वान हैं। महाभारत महाकाव्य यह आपने लिखी है। भगवद्गीता को पुस्तक के रूप में आपने ही लिखा है। चारों वेदों में ऋचा और सुक्त की तरतीब आप ही ने दी है। आपने १७ पुराण लिखे हैं। जिनमें भविष्य पुराण भी एक है।

• वेद व्यास जी ने केवल २४००० श्लोक महाभारत में लिखे थे। आज उनकी संख्या एक लाख से अधिक है। यह ७५००० से अधिक श्लोक बाद में जोड़े गए हैं।
(पुनर्जन्म एक रहस्य पं. १४)

• महाभारत के अट्ठारह पर्व में से एक पर्व का नाम भीष्म पर्व है। इस पर्व के चार उप- पर्व हैं। जिनके नाम निम्नलिखित हैं :
१) जम्बुखण्ड विनिर्माण पर्व
२) भूमि पर्व
३) श्रीमदभगवदगीता पर्व
४) भीष्म वध पर्व

• महाराज विकासानन्द ब्रम्हचारी जी कहते हैं कि गम्भीर रुप से घायल होकर जीवित रहना यह एक अद्भुत और महत्त्वपूर्ण घटना है। अगर वास्तविक रूप से ऐसा हुआ होता तो वेद व्यास जी कभी उसे नजर अन्दाज (Neglect) न करते। मगर ऐसा नहीं हुआ था। इसलिए उन्होंने भी उस पर्व का नाम शरशैय्या पर्व न रखा बल्कि भीष्म वध पर्व रखा।

• महाभारत के आरंभ के दो पर्व का नाम पर्व संग्रह है। इन दोनों में महाभारत पुस्तक के अध्यायों और घटनाओं का वर्णन (Details of Topics) है।

• पर्व संग्रह के अनुसार भीष्म पर्व में कुल ११७ अध्याय और ५८८४ श्लोक होने चाहिए थे। मगर इस समय अध्याय की संख्या १२२ और श्लोकों की संख्या ६१०० है। महाराज विकासानन्द जी कहते हैं कि यह इस बात का प्रमाण है कि महाभारत में बाद में श्लोक और अध्याय जोड़े गए हैं। (पुनर्जन्म एक रहस्य पं.६)

• भीष्म पितामह के शरशैय्या पर लेटने की घटना यह बाद में जोड़ी गई है। इसके कुछ प्रमाण निम्नलिखित हैं :

• भीष्म पर्व के अध्याय १३ और १४ में संजय धृतराष्ट्र को भीष्म पितामह के वध की जानकारी दे रहे हैं। तो होना तो यह चाहिए था कि दोनों अध्याय में केवल भीष्म पितामह के बाणों के बिस्तर पर (शरशैय्या पर) लेटने का वर्णन होता। मगर अध्याय १३ में चार बार और अध्याय १४ में १३ बार भीष्म पितामह के मृत्यु की बात कही गई है। अध्याय १३ के वह चार श्लोक निम्नलिखित हैं :

१. निहंत भीष्म भरतानां पितामह
११ (१३/२)

२. हतो भीष्मः शान्तनवो भरतानां पितामहः
११ (१३/३)

३. सशेते निहतो राजन संख्ये भीष्मः शिखण्डिना
११ (१३/५)

४. न हतो जाम दग्न्येन स हनोहृदय शिखण्डिना
११ (१३/२)

• इसी तरह पहले पर्व संग्रह के श्लोक नं १८३ और १८४ में भी भीष्म पितामह के मृत्यु का वर्णन है, न कि शरशैय्या पर लेटने का। वह श्लोक निम्नलिखित हैं :

१) स्वयं मृत्यु विहित धार्मिकेम ।
(महा: आदि पर्व - १/१८३)
२) यथोश्रोवं भीष्ममत्यान्तशूरं हतं पार्थे नाह वेष्च प्रधृश्यम ।
(आदि- १/८४)

• महाराज विकासनन्द जी लिखते हैं कि महाभारत के लेखक श्री वेद व्यास जी ने महाभारत महाकाव्य में बहुत सारे महापुरुषों के मृत्यु की घटना का वर्णन किया है। जैसे अभिमन्यु, द्रोणाचार्य, कर्ण इत्यादि । मगर श्री वेद व्यास जी ने स्वर्ग रोहण पर्व, अध्याय ५ मंत्र नं २७-२६ में इन सभी को स्वर्ग प्राप्त हुआ ऐसा लिखा है। जबकि उस समय सूर्य दक्षिण में था। तो भीष्म पितामह को गम्भीर रुप से घायल होने के बाद भी बहुत दिनों तक शरशैय्या पर लेटे रहने का क्या कारण था ? कोई कारण नहीं था।

• श्री वेद व्यास जी ने पूरे महाभारत में कहीं पर भी किसी के पुनर्जन्म का वर्णन नहीं किया है। इसलिए महाभारत में भीष्म पितामह के पुनर्जन्म के डर से शरशैय्या पर लेटने की घटना यह बाद में महाभारत में जोड़ी गई है। और यह सही नहीं है।

• ऊपर हमने जो कुछ कहा उसका सार यह है कि हिन्दू धर्म के सबसे महान विद्वान महर्षि श्री वेद व्यास जी पुर्नजन्म में विश्वास नहीं रखते थे। न उन्होंने किसी को इसकी शिक्षा दी और न इसे किसी ग्रंथ में लिखा।

• महाभारत में भीष्म पितामह का अपनी मृत्यु को पुनर्जन्म के डर से आगे बढ़ाने की जो घटना का वर्णन है, वह महाभारत में बाद में जोड़ा गया है। वह वेद व्यास जी की शिक्षा नहीं है।

छांदोग्य उपनिषद में पुनर्जन्म का उल्लेख

• महर्षि वेद व्यास जी के एक शिष्य का नाम ऋषि वैश्यंम्पायन था। और ऋषि वैश्यंम्पायन के शिष्य का नाम ऋषि ताण्ड था। ताण्ड ने सामवेद के एक शाखा पर शोध किया, फिर उसकी व्याख्या की जिसे ताण्ड शाखा कहा जाता था।

• इस ताण्ड शाखा के एक भाग का नाम छांदोग्य उपनिषद है। इस छांदोग्य उपनिषद में दस भाग हैं। जिसमें के ८ भाग को एक पुस्तक का रूप दिया गया है जिसे छांदोग्य उपनिषद कहते हैं।

• छांदोग्य उपनिषद में ६ अध्याय १५२ खण्ड और ६२८ मन्त्र हैं। इस उपनिषद में दो जगह परलोक के रास्ते और पुनर्जन्म का विस्तारपूर्वक वर्णन है।

• अध्याय ५ खण्ड १० के सभी १० मन्त्रों में परलोक के रास्तों की व्याख्या है। अध्याय ८ के खण्ड ६ के पांचवे मन्त्र में भी परलोक के रास्तों का वर्णन है।

• छांदोग्य उपनिषद के अध्याय ५ और खण्ड १० के आठ श्लोकों का वर्णन निम्नलिखित है;

मन्त्र नं १ “ तद्य इत्थं विद्रुर्ये चेमेहरण्ये श्रद्धा तप इरयुपासते ते हर्चिषममि संमवन्चर्चिपोहरह आपूर्यमाण-पक्षमा पूर्यमाण पक्षा धान्श डु दङ् डेति मासांस्तान् ।।"

अनुवाद:- जो पन्चाग्नि के ज्ञान को प्राप्त करते हैं और जंगल में रहते हुए सच्ची श्रद्धा से प्रार्थना करते हैं वह मरने के बाद तेज प्रकाश की किरणों पर सवारी करते हैं। किरणों से दिन, दिन से शुक्ल पक्ष, फिर शुक्ल पक्ष से उत्तरायण के छ: महीनों को पा लेते हैं। (अध्याय ५, खंड १०, श्लोक १)

मन्त्र नं २ “ मासेभ्य संवत्सर संवत्सरा दादित्य मादित्याच्चन्द्रमसं चन्द्रमसो विद्युतं तत्पुरुषों हमानवः स इनान्ब्रह्म गमयत्येश देवयानः पन्था इति ।।"

अनुवाद:- उत्तरायण के छः महीनों के बाद संवत्सर को पा लेते हैं। संवत्सर से आदित्य, फिर आदित्य से चंद्रमा फिर चन्द्रमा से विद्युत को पा लेते हैं। वहाँ पर एक पवित्र आत्मा है जो मृतक को परब्रम्हा से मिला देती है। वहीं पर स्वर्ग का रास्ता यानी देवयान है। (श्लोक नं. २ )

• मन्त्र नं १ और २ का भावार्थ:- अर्थात् स्वर्ग का रास्ता उन्हीं को ही मिलता है जो जंगल में पंचाग्नि ज्ञान के माध्यम से प्रार्थना करते हैं।

मन्त्र नं ३ “अथ य इमे भ्राम इष्टापूर्ते दन्तमिव्युपासते ते धूममभिसं भवन्ति धूमाद्रत्रिं रात्रेर पर पक्षम परपक्षाद्यान्ष इदक्षिणति मासांस्तान्नैते संवत्सर गभि प्रानुवन्ति ।।"

अनुवाद:- और जो लोग शहरों और गांवों में रहते हैं और जो ईश्वर की प्रार्थना के द्वारा या समाज सेवा के माध्यम से, या दान पुण्य के माध्यम से प्रार्थना करते हैं, वह मरने के बाद धुएं पर सवारी करते हैं। धुएं से रात में, फिर रात से कृष्णपक्ष को पा लेते हैं। इन लोगों को सवंत्सर नहीं मिलता।

मन्त्र नं ४ "मासेभ्यः पितृलोकं पितृलोकादाश माकाशाच्चन्द्रमसमेष सोमो राजा तददेवाना मझं तं देवा भक्ष्यन्ति ।।"

अनुवाद :- कृष्णपक्ष से वह दक्षिणायण को ग्रहण करते हैं। (दक्षिणायण यानि जब सूर्य दक्षिण की ओर होता है।) फिर वह पितृलोक को हासिल करते हैं, फिर पितृलोक से आकाश, फिर आकाश से चंद्रमा को पा लेते हैं। यह चंद्रमा ही राजा सोम है। वह सभी का अन्न है। सभी देवगण उसका भक्षण करते हैं।

मन्त्र नं ५ "तस्मिन्या वत्सं पात भुषित्वा थैत मेवाध्यानं पुनर्निबर्तन्ते यथेतमाकाशा द्वायुं वायुर्भूत्वा घूमो भवति घूमो भूत्वाभ्रं भवति ।। "

अनुवाद:- जब तक अच्छे कर्म के बदले अच्छे दिन गुजारने का समय होता है, वह चंद्र मण्डल में रहते हैं। फिर उसके बाद बताए हुए रास्ते से लौट आते हैं। पहले वह आकाश पर आते हैं, फिर हवा पर सवार होते हैं। फिर धुँएं पर सवार होते हैं। फिर धुँएं से बादल बन जाते हैं।

मन्त्र नं ६ “अभ्रं भूत्वा मेधो भवति मेधो भूत्वा प्रवर्षति त इह व्रीहियवा औषधि वनस्पत यस्ति लाभाषा इति जायन्ते हतो वै खलु दुर्निश्प्रपतरं यो द्यन्नभन्ति यो रेतः सिन्चति तदुय एवं भवति ।।”

अनुवाद:- फिर बादलों से वर्षा के रूप में बरसते हैं। उस समय वह सभी आत्माएं इस दुनिया में चावल, जौ, दवाएं, पेड़, पौधे, उड़द की दाल और तिल वगैरह बनकर प्रकट होते हैं। फिर उन सब चीजों को जो जानदार खाते हैं और जब वह बच्चा देते हैं तो वह सब आत्माएं उन्हीं जानदारों के बच्चों के रुप में जन्म लेते हैं। ऐसे आवागमन से निकलना बहुत मुश्किल होता है।

मन्त्र नं ७ “तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यन्ते रमणीयां योनिमापघेरन्ब्रह्मणयोनि वा क्षत्रिययोनि वा वेश्य यौनिं वाथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरन् योनि वा सूकरयोनि व चण्डालयानिं वा ।।"

अनुवाद:- उन सभी आत्माओं में जो अच्छे कर्म वाले होते हैं वह फिर से अच्छा जन्म लेते हैं। जैसे ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य आदि । और जो कुकर्म करने वाले होते हैं वह और भी बुरे शक्ल में पैदा होते हैं जैसे सुअर, कुत्ता, चंडाल ।

मन्त्र नं ८ "अथतयोः पर्थार्न कतरेण च न तानिमानि क्षुद्वाण्यसकृदावर्तीनी भूतानि भवन्त" (छा:- ५/१०/८)

अनुवाद:- जो आत्माएं इन दोनों मार्गों यानी
(अंधेरे और उज्जवलित रास्तों) को नहीं पा पाती हैं। उनको तीसरा रास्ता मिलता है, जिसे तृतीय मार्ग कहते हैं। इस रास्ते को पाने वाले कीड़े मकोड़े की शक्ल में पैदा होते हैं। जिनकी जिंदगी में मरना और जीना यही दो काम होते हैं। इसलिए दुनियादारी से नफरत करना चाहिए, और जंगल की जिंदगी अपनाना चाहिए। (श्लोक नं ८)

• ऊपर वर्णन किए गए श्लोक के अनुवाद को अगर हम फिर से पढ़ें तो तीन बातें समझ में आती हैं।

१. व्यक्ति पन्चाग्नि विद्या को जानने वाला होना चाहिए।

२. व्यक्ति पन्चाग्नि विद्या को जानकर जंगल में रहने वाला हो।

३. व्यक्ति पन्चाग्नि विद्या को जानकर जंगल में रहकर विश्वास के साथ उपासना और भक्ति करने वाला हो। ऐसा व्यक्ति ही मरने के बाद देवयान यानी स्वर्ग के रास्ते को पाएगा।

• विकासानन्द ब्रम्हचारी जी कहते हैं कि, स्वर्ग का रास्ता प्राप्त करने की जो तीन शर्ते हैं वह क्या भीष्म पितामह में थीं? इसलिए या तो भीष्म पितामह को भी स्वर्ग का रास्ता न मिला, और अगर भीष्म पितामह को स्वर्ग का रास्ता मिल गया तो यह तीन शर्तें गलत हैं।

• महाराज जी कहते हैं जो लोग समाज में रहकर ईश्वर की उपासना करते हैं और मानवसेवा का कार्य करते हैं, और दान पुण्य का कार्य करते हैं। उन्होंने क्या गलत कार्य किया जो उन्हें स्वर्ग का रास्ता न मिले। समाज में रहकर पुण्य कार्य करना क्या पाप है ?

• अगर इस ब्रह्माण्ड के विधाता (ईश्वर) ने मुक्ति का रास्ता सिर्फ जंगल में रहकर उपासना करने के जरिए रखा होता तो आज मनुष्य पैदा न होते, न हम और आप होते।

• जंगल में रहना वेदों की शिक्षा नहीं है। इसलिए पुराने जमाने के विद्वान गांव और शहरों में रहते थे। और उनके जीवन में भी पत्नी और बच्चों का वर्णन मिलता है। ( उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद के दूसरे मण्डल के सभी मन्त्रों में इसी का वर्णन है।)

• इसी तरह ऋग्वेद के छठे मण्डल ६, ११, १२, १३, १४, १७, २४ तक सभी सुक्तों के आखिर में लिखा है कि "हम लोग अपने पुत्रों के साथ १०० साल तक सुख का जीवन व्यतीत करें”। यानी पत्नी और बच्चों के साथ सुखद् जीवन गुजारना यह ईश्वर का एक वरदान है जिसके लिए प्रार्थना की जाती है।

• तो वेद सत्य हैं। और जो कुछ वेदों के ज्ञान के विरुद्ध लिखा है वह सत्य नहीं हो सकता। इसलिए जंगल में रहकर उपासना करने पर ही स्वर्ग मिलेगा यह बात सत्य नहीं है।

• छांदोग्य उपनिषद (८:१०:०५) में हमने पढ़ा की देवयान और पितृयान इन दो रास्तों के अलावा एक तीसरा रास्ता है। यह बात भी इस उपनिषद में गलत है क्योंकि वेदों और भगवद्गीता में सिर्फ दो ही रास्तों का वर्णन है। उदाहरण के लिए भगवद्गीता में लिखा है,
• “मेरे द्वारा वेदों में भी ( मरने के बाद) इस संसार से ( जाने के लिए दो) मार्ग ( बताए गए हैं।) इन दोनों मार्गों में नि:संदेह एक उज्ज्वल (सफलता का) मार्ग है और दूसरा अंधेरा (असफलता का) मार्ग है। एक मार्ग (जन्म और मौत की बार बार ) वापसी न होने वाले (स्वर्ग के) धाम की ओर जाता है, और दूसरा (अंधेरा मार्ग है जो कि) बार बार (जन्म और मौत की) वापसी वाले (नरक के) धाम की ओर जाता है। (८:२६)

• जब तीसरे मार्ग का वर्णन किसी वेद में नहीं तो इस उपनिषद में कहां से आ गया।

• छांदोग्य उपनिषद के वह श्लोक जो वेदों की शिक्षा के अनुसार हैं।

• छांदोग्य उपनिषद में अब तक जो हमने पढ़ा उन सब में वेदों के ज्ञान के विरुद्ध वाली बातें थीं। अब हम उसी उपनिषद में परलोक की कुछ और बातें पढ़ते हैं जो वेदों के ज्ञान के अनुसार हैं वह बातें निम्नलिखित हैं :

• “अथ सत्र एरात् अस्मात भारीरम उत्कामति अथ एतैः एवं रश्मिभिः उर्द्धम आकमते, सः ओम इति व द्वउत वा मीयते, स यावत क्षिप्यत, मनः तावत् आद्रिव्यम मच्छति । एतत् वै खलू लोक द्वारम विदुषाम प्रपदनम् निरोध: अविदॄषाम । (छा ८/६/५)

• इसी छांदोग्य उपनिषद में अध्याय ८ मंण्डल ६ और मन्त्र पांच में लिखा है कि जब आत्मा शरीर से निकलती है तो प्रकाश के माध्यम से ऊपर की तरफ यात्रा करती है। अगर किसी इन्सान की मृत्यु ईश्वर को याद करते हुए होगी तो जरुर वह ऊपर की तरफ गमन करती है। वह आदित्य नाम के लोक में उतनी ही जल्द पहुंच जाती है जितनी देर में मन एक विचार से दूसरे विचार की तरफ जाता है। (यानी बहुत जल्द ) । यह आदित्य लोक ही स्वर्ग का रास्ता है। जिसमें सिर्फ ज्ञानी और तपस्वी ही प्रवेश करेंगे। इसमें अज्ञानी प्रवेश नहीं कर सकते है।
( पुनर्जन्म एक रहस्य पेज नं. २२)

• अब छांदोग्य के इस ज्ञान पर ध्यान दें। यह ज्ञान वेदों से मिलता जुलता है। एक ही उपनिषद में दो तरह की शिक्षा कैसे हो सकती है। अभी हमने इस उपनिषद में पढ़ा कि पंचाग्नि के ज्ञान और जंगल में रहकर उपासना के बगैर स्वर्ग नहीं मिलेगा। और मृत्यु के समय अगर सूर्य उत्तर दिशा की तरफ न हुआ तो धरती पर फिर जन्म लेना पड़ेगा। और अब हम पढ़ रहे हैं कि सज्जन मनुष्य अगर ईश्वर का नाम लेते हुए प्राण त्याग दे तो स्वर्ग के द्वार तक पहुंच जाता है। क्या एक ही उपनिषद में दो तरह की शिक्षा से आपको आश्चर्य नहीं होता है। जी हां यह बड़ी आश्चर्यजनक बात है। और यह इसलिए है कि इसमें एक सही और एक गलत है। सही ज्ञान वह है जो वेदों से मिलता जुलता है। यानी मनुष्य की आत्मा मरने के बाद ऊपर की तरफ यात्रा करती है और बहुत जल्द परलोक में पहुंच जाती है। जबकि पुनर्जन्म वाला और सूर्य से सम्बन्ध रखने वाला स्वर्ग के मार्ग की शिक्षा वेद की शिक्षा नहीं है। इसलिए वह सब शिक्षा इस उपनिषद में बाद में शामिल की गई हैं या वह मनगढ़ंत (Fabricated) है।

बृहदारण्यक उपनिषद में पुनर्जन्म का वर्णन

बृहदारण्यक उपनिषद
• बृहदारण्यक उपनिषद को ऋषि याज्ञवल्कय ने लिखा था। ऋषि याज्ञवल्कय ऋषि वैशम्पायक के शिष्य थे। और ऋषि वैशम्पायक ऋषि महर्षि वेद व्यास जी के शिष्य हैं। बृहदारण्यक उपनिषद यजुर्वेद भाग के ब्राह्मण शतपथ के १४ अध्याय को लेकर बना है। इस उपनिषद के कुल ६ अध्याय हैं। इन अध्यायों में कुल ४७ ब्राह्मण हैं। और कुल ४३५ मन्त्र हैं।

• इस उपनिषद में कुल ३ जगहों पर परलोक का वर्णन है।
१. चौथे अध्याय के चौथे ब्राह्मण में
२. ५ वें अध्याय के १० वें ब्राह्मण में
३. छठे अध्याय के दूसरे ब्राह्मण में चौथे अध्याय के चौथे ब्राह्मण में श्लोक नं. ३ इस प्रकार है;

• जैसे घास पर चलने वाला कीड़ा एक घास के तिनके से दूसरे तिनके पर जाने के लिए अपने शरीर को पहले सिकोड़ता है फिर दूसरे तिनके का सहारा लेने के बाद पहले तिनके को छोड़ देता है। इसी तरह आत्मा पहले शरीर का सहारा छोड़ कर अविद्या का परित्याग करके अपना उपसंहार करते हुए दूसरे नवीन शरीर का आश्रय ग्रहण कर लेती है। (४/४/३)

• चौथा श्लोक इस प्रकार है। जिस प्रकार स्वर्णाकार स्वर्ण लेकर उसे नवीन कल्याणकारी रुप प्रदान करता है, उसी प्रकार यह आत्मा वर्तमान शरीर को चेतना रहित करके, अविद्या से मुक्ति पाकर पितर, गन्धर्व, देव, प्रजापति, ब्रम्ह अथवा अन्य प्राणियों के नवीन स्वरुप को धारण करती है, अथवा नूतन रूपों का निर्माण करती है। (४/४/४)

• महाराज विकासानन्द जी कहते हैं कि बृहदारण्यक उपनिषद में वर्णन किए गए दोनों श्लोकों का ज्ञान वेदों के निम्नलिखित मन्त्रों के ज्ञान इस तरह हैं। अलग है। वेदों के दोनों मन्त्र

• परलोक में आत्मा को नया शरीर मिलेगा, परलोक में सभी आत्माओं को देवताओं के वंश में रहना होगा। परलोक में आत्माएं स्वतंत्र नहीं होंगी और उन आत्माओं को अपने कर्म का फल भी वहीं भोगना होगा। (ऋग्वेद २:१६:१०)

• आत्माएं किस मार्ग से परलोक जाएंगी वह मार्ग यमदूत पहले ही दिखा देता है। वह मार्ग कभी नष्ट न होने वाले हैं। जिस मार्ग से पहले के लोग गए हैं अपने अपने कर्म के आधार पर प्रत्येक प्राणी इसी मार्ग से जाएंगे। (ऋग्वेद १०:१४:२ रमेशचन्द्र दत्त) (पुनर्जन्म का रहस्या पेज नं २४)

• तो दोनों श्लोक से स्पष्ट होता है कि आत्माएं अपनी मर्जी से किसी भी रूप में फिर जन्म लेने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं। और इन दोनों श्लोक से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि,

१. पुनर्जन्म नहीं होगा बल्कि मरने वालों को परलोक में एक (देवताओं या फरिश्तों की तरह) नया शरीर मिलेगा।

२. मृतक को किस मार्ग से स्वर्ग या नरक में जाना है यह यमदूत बताएगा। और कर्म के अनुसार स्वर्ग या नरक का मार्ग मिलेगा।

३. परलोक में ही उसे अपने कर्म का फल भोगना होगा।

• इस उपनिषद के चौथे अध्याय के चौथे ब्राह्मण के छठे श्लोक का अध्याय यह है कि जिन लोगों का दिल इच्छाओं से भरा होता है वह अगर सत्कर्म भी करें तो वह अपने सत्कर्म के अनुसार कुछ दिन परलोक में आराम से रहते हैं, मगर वह आराम के कुछ समय खत्म होने के बाद फिर इसी दुनिया में बार बार जन्म लेने के लिए लौट आते हैं। और जो किसी चीज़ की इच्छा नहीं करते और जो हर कार्य सिर्फ ईश्वर से बदले की उम्मीद से करता है। उसका पुनर्जन्म नहीं होता है। वह तो ब्रम्हा में ही समा जाता है।

• ऊपर वर्णन किए श्लोक के अनुसार सभी इच्छाओं वाले मनुष्य को स्वर्ग नहीं मिलेगा। महाराज विकासानन्द जी कहते हैं कि ऐसा कौन सा मनुष्य है जिसके मन में कोई इच्छा न हो । सिर्फ इच्छा करने से अगर नरक मिलने लगे तो इस तरह कोई मनुष्य सफल हो ही नहीं सकता है।

• तो जो कुछ बृहदारण्यक उपनिषद के तीन श्लोकों में है वह वेदों की शिक्षा के विरुद्ध है। अब हम बृहदारण्यक उपनिषद का एक श्लोक परलोक के बारे में पढ़ते हैं जो वेदों के अनुसार है।

• यदा वै पुरुषो हस्माल्लोकाप्रति स वायुमागच्छति तस्मै स तत विजिहीते यथा रथचक्रस्य एरां तेन स उर्ध्व आक्रमते ख आदित्य मा गच्छति तस्मै स तत विजिहते यथा लम्बरस्य ख तेन स उर्ध्व आक्रमते स चन्द्रमसमागच्छते तस्मै स तत विजिहते यथा दुन्दुभे: खं तेन स उर्ध्व आक्रमते स लोक मागच्छत्य भाकमहिम तस्मिनवसति भाश्वती समाः ।।
(बृहदारण्यक उपनिषद ४/१०/१ मन्त्र)

अनुवाद:- जब मनुष्य मरने के बाद परलोक की तरफ यात्रा करता है तो वह सबसे पहले वायुलोक में प्रवेश करता है। वहाँ पर वायु अपनी चादर में छेद करके उसे रास्ता देती है। यह छेद रथ के पहिये के रुप का होता है। इस मार्ग से वह ऊपर की तरफ उठता है। वह सूर्य के लोक में प्रवेश करता है। उस लोक में भी लम्बर नाम के हथियार के रुप के छेद की तरह उसका मार्ग होता है। वहाँ से वह ऊपर की तरफ उठता है। और चन्द्रलोक में पहुंच जाता है। वहाँ से उसके लिए दुन्दुभि की शक्ल की तरह छेद का रास्ता दिया जाता है। इस लोक से वह ऊपर उठता है और वह अहिम (जहाँ मानसिक तनाव नहीं) और हम (जहाँ शारीरिक पीड़ा नहीं) ऐसे लोक में पहुंच जाता है, वहाँ चिरकाल के लिए निवास करता है।

• जब एक ही उपनिषद में दो अलग अलग शिक्षा हो तो वह शिक्षा जो वेदों से मिलती जुलती है उसे ही अपनाया जाएगा। चूंकि ऊपर दिए गए श्लोक में मृतक के मार्ग का वर्णन वेद की शिक्षा के अनुसार है। इसलिए इसे अपनाकर पहले के सभी श्लोकों को जिसमें पुनर्जन्म का वर्णन है और मुक्ति मिलने की बहुत सारी कठिनाईयाँ हैं हम उन सबको छोड़ हैं देते हैं।

• महाराज विकासानन्द ब्रम्हचारी जी कहते हैं, सत्य हमेशा एक जैसा और हमेशा कायम रहता है। और झूठ बार-बार बदलता रहता है ।

• एक ही उपनिषद में इस तरह मरने के बाद और पुनर्जन्म का दो या तीन तरह का वर्णन इस बात का सबूत है कि यह पुनर्जन्म की शिक्षा उपनिषद में बाद में मिलाई गई है। और यह असल वेद के ज्ञान के अनुसार नहीं है और प्रक्षिप्त है।

• इस तरह यह सिद्ध हो गया कि महाभारत छांदोग्य उपनिषद और बृहदारण्यक उपनिषद में जो पुनर्जन्म की शिक्षा है वह वेदों का ज्ञान नहीं है। बल्कि बाद में प्रक्षिप्त की गई हैं या मिलाया गया है।

• महाराज विकासानन्द ब्रम्हचारी जी कहते हैं कि, पुनर्जन्म के बारे में सारे लेख पढ़ने के बाद और शोध करने के बाद जो बात समझ में आती है वह इस तरह है, कि महर्षि वेद व्यास जी हिन्दू धर्म के सबसे बड़े आचार्य हैं। आपने महाभारत और १७ पुराण लिखे। भगवद्गीता को भी पुस्तक का रुप आपने ही दिया था। पुर्नजन्म यह एक महत्त्वपूर्ण विश्वास या श्रद्धा है। अगर इसमें कुछ भी सच्चाई और वास्तविकता होती तो आप भी इस पर कुछ न कुछ जरुर लिखते। मगर आपने इस बारे में कुछ नहीं लिखा।

• छान्दोग्य उपनिषद और बृहदारण्यक उपनिषद के लेखक ऋषि ताण्ड और ऋषि याज्ञवल्कय यह महर्षि वेद व्यास जी के शिष्य थे। तो जो शिक्षा और विचार गुरु के होते हैं वही उसके शिष्यों के होते हैं। तो ऋषि ताण्ड और ऋषि याज्ञवल्कय भी पुनर्जन्म पर विश्वास रखने वाले न थे। उनके उपनिषदों में दोनों प्रकार के विचार हैं, और श्लोक हैं। अर्थात् उनके उपनिषदों में वेदों की शिक्षा के अनुसार पुनर्जन्म नहीं होने के भी श्लोक हैं। और वेदों की शिक्षा के विरुद्ध में पुर्नजन्म होने के भी श्लोक हैं। तो जो श्लोक वेदों के अनुसार पुनर्जन्म नहीं होने के श्लोक हैं वही लेखक के विचार हैं। और जो श्लोक पुर्नजन्म होने की शिक्षा देते हैं, वह लेखक के विचार नहीं हैं और वह बाद में उपनिषद में लिखे गए या मिलाए गए हैं। वह प्रक्षिप्त (Fabricated) हैं।