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अध्याय 1 - अर्जुन विषाद योग


INTRODUCTION :


अर्जुन और उसके भाईयों के साथ अन्याय हुआ था। इस कारण अर्जुन के पास युद्ध के अतिरिक्त और कोई उपाय न था। रणभूमि में जब अर्जुन (पाण्डव) और दुर्योधन (कौरवों) की सेनाएं आमने-सामने हुई तो अर्जुन ने श्री कृष्ण से दोनों सेनाओं के बीच (मध्य) खड़े होकर दोनों सेनाओं को देखने की इच्छा प्रकट कि । अर्जुन के कहने पर श्री कृष्ण ने अर्जुन के रथ को दोनों सेनाओं के बीच खड़ा कर दिया।

जब अर्जुन ने दोनों सेनाओं को देखा तो दोनों तरफ अपना ही परिवार और सम्बंधी नज़र आऐ।

अर्जुन शासक परिवार से थे। उनका ऐसा मानना था कि शासक और समाज आदरणीय परिवार की जीवन शैली को ही समाज अपनाता है। (भगवद् गीता के अध्याय ३ श्लोक नं. २१ का भी यही अर्थ है)। यदि उनका शासक परिवार आपसी युद्ध के कारण नष्ट हो जाता है, तो उच्च नैतिक मूल्य या कुलधर्म जिसका उनके कारण समाज में परंपरा है, वह भी नष्ट हो जाएगा और सम्पूर्ण समाज के परिवारों पर अधर्म छा जाएगा। अधर्म के बढ़ने से स्त्रियां दूषित होंगी और वर्णसंकट (दोगले) बच्चे जन्म लेंगे। और इन सब का कारण वह लोग होंगे, जिन्होंने परिवार को आपस में लड़ाकर नष्ट कर दिया।

इस कारण शासक परिवार को विनाश से बचाने के लिए अर्जुन ने बीच रणभूमी में युद्ध से इन्कार कर दिया।

धृतराष्ट्र उस समय का अंधा राजा था। दुर्योधन उनका बड़ा पुत्र और अधर्म का प्रतिक था। उसके सौ भाई थे। धृतराष्ट्र के मंत्री संजय में यह विशेषता थी की वह राज महल में बैठे-बैठे रणभूमी को देख सकते थे। इस प्रकार संजय आँखों देखा हाल अंधे धृतराष्ट्र को बताते रहते।

यह युद्ध अधर्म के विरुद्ध सत्य की स्थापना का युद्ध था। इस कारण श्री कृष्ण जी, जो कि योगेश्वर भी हैं, उन्होंने रणभूमी में ही अर्जुन के शंकाओं को दूर किया और सत्य धर्म क्या है, और मनुष्य के अनिवार्य कर्म क्या हैं, इसका उपदेश दिया।

यह दिव्य पुस्तक भगवद् गीता श्री कृष्ण के द्वारा अर्जुन को दिए गए ईश्वर के आदेश और उपदेशों की संग्रह है। जिसे महाऋषी वेद व्यास जी ने अपने शब्दों में लिखकर मानवजाति को दिया है। जो उपदेश अर्जुन के लिए द्वापरयुग में जितने महत्त्वपूर्ण थे, वह उपदेश सदैव मानवजाति के लिए हर युग में महत्त्वपूर्ण रहे हैं । इस कारण सत्य को जानने के लिए इस दिव्य पुस्तक को अवश्य पढ़िए और याद रखिए।

SHLOKS :

भगवद गीता - श्लोक 1.1 View

धृतराष्ट्र ने कहा, “हे संजय धर्म भूमि कुरुक्षेत्र में नि:संदेह युद्ध की इच्छा से इकठ्ठे होकर मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?”

भगवद गीता - श्लोक 1.2 View

संजय ने कहा, "हे राजे इस समय पाण्डव सेना को पंक्तियों में खड़ी देखकर दुर्योधन अपने गुरु बातें कही।” द्रोणाचार्य के पास गए और कुछ

भगवद गीता - श्लोक 1.3 View

(दुर्योधन ने कहा ) "हे आचार्य! आपके बुद्धिमान शिष्य, द्रुपद के पुत्र द्वारा मोर्चा पर खड़ी की हुई पाण्डव के पुत्रों की महान इस सेना को देखिये।”

भगवद गीता - श्लोक 1.4 View

( उनकी सेना में) धृष्टकेतु, चेकितान, तथा वीर्यवान पराक्रमी काशिराज, और कुन्तिभोज, तथा मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य (भी हैं)

भगवद गीता - श्लोक 1.5 View

( उनकी सेना में) धृष्टकेतु, चेकितान, तथा वीर्यवान पराक्रमी काशिराज, और कुन्तिभोज, तथा मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य (भी हैं)

भगवद गीता - श्लोक 1.6 View

पराक्रमी युधामन्यु और पराक्रमी उत्तमौजा (भी है), सुभद्रा के पुत्र (अभिमन्यु) और द्रोपदी के पाँचो पुत्र (भी हैं) सब निःसन्देह महारथी हैं।

भगवद गीता - श्लोक 1.7 View

हे ब्राह्मणों में सब से श्रेष्ठ (द्रोणाचार्य) हमारे पक्ष में भी जो मुख्य (पराक्रमी है) उन पर (भी आप ) ध्यान दीजिये। आपकी जानकारी के लिए मेरी सेना के (जो) नायक हैं उनको (मैं) कहता हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 1.8 View

भीष्म पितामह, कर्ण, और कृपाचार्य, और अश्वत्थामा, और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा, और निःसन्देह आप भी सदैव विजयी रहने वालों में है।

भगवद गीता - श्लोक 1.9 View

इनके अतिरिक्त बहुत से शूरवीर मेरे लिए अपना जीवन त्यागने के लिए अनेक प्रकार के अस्त्र के साथ हैं। (और) सभी युद्ध कला में अत्यन्त कुशल और निपुण है।

भगवद गीता - श्लोक 1.10 View

हमारी इस सेना की शक्ति भीष्म पितामह के कमान में असीमित है। परन्तु उन (पाण्डवों की) उस (सेना की) शक्ति भीम की कमान में सीमित है।

भगवद गीता - श्लोक 1.11 View

(दुर्योधन ने अपनी सेना के महारथियों से कहा ) और निःसंदेह हर एक को मोर्चा में जिस प्रकार अलग-अलग भागों में स्थित किया है। उन सभी को अपनी-अपनी टुकड़ियों में रहते हुए; जैसे अपनी रक्षा करते हैं वैसे अवश्य ही भीष्म पितामह की रक्षा करना चाहिए।

भगवद गीता - श्लोक 1.12 View

उस दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करने के लिए कौरवों में वृद्ध प्रभावशाली भीष्म पितामह ने सिंह के समान गरजकर जोर से शंख बजाया।

भगवद गीता - श्लोक 1.13 View

उसके बाद शंख और बड़े-बड़े ढोल मृदंग और बाजे इत्यादि। अचानक एक साथ बजने लगे। इनकी जो आवाज थी वह निःसन्देह बहुत ही भयंकर थी ।

भगवद गीता - श्लोक 1.14 View

उसके बाद सफेद घोड़ों से युक्त महान रथ पर बैठे हुए श्री कृष्ण और पाण्डुपुत्र अर्जुन ने भी दिव्य शंखों को जोर से बजाया।

भगवद गीता - श्लोक 1.15 View

श्री कृष्ण ने पांचजन्य ( नामक शंख बजाया ) धनंजय अर्जुन ने देवदत्त ( नामक शंख बजाया ) (और) सबसे बड़ा पौण्डू नामक बडा शंख बहुत अधीक भोजन करने वाले ( और बहुत काम करने वाले भीम ने बजाया।

भगवद गीता - श्लोक 1.16 View

हे राजा (धृतराष्ट्र)! कुन्ती पुत्र युधिष्ठिर ने अनन्त विजय (नामक शंख बजाया तथा ) नकुल और सहदेव ने सुघोष ( तथा ) मणिपुष्पक (नामक शंख बजाये ) ।

भगवद गीता - श्लोक 1.17 View

श्रेष्ठ धनुषवाले काशिराज और महारथी शखण्डी तथा घृष्टधुम्न और राजा विराट और अजेय सात्यकि

भगवद गीता - श्लोक 1.18 View

राजा द्रुपद और द्रौपदी के पाँचो पुत्र और शक्तिशाली भुजाओं वाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु सब ओर से हे राजन धृतराष्ट्र अलग-अलग शंख बजाए गए।

भगवद गीता - श्लोक 1.19 View

राजा द्रुपद और द्रौपदी के पाँचो पुत्र और शक्तिशाली भुजाओं वाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु सब ओर से हे राजन धृतराष्ट्र अलग-अलग शंख बजाए गए।

भगवद गीता - श्लोक 1.20 View

हे राजन! फिर धृतराष्ट्र के पुत्रों को देखते हुए। वह रथ जिसके ध्वज पर हनुमान का चिन्ह था। (उस रथ पर ) बैठे हुए पाण्डु पुत्र अर्जुन ने अपना गाण्डीव धनुष उठा लिया और शस्त्र चलाने के लिए आगे बढ़ते हुए, श्री कृष्ण से उस समय यह शब्द कहे।

भगवद गीता - श्लोक 1.21 View

कैःमया सह योद्धव्यम अस्मिन। रण समुध्यमे अर्जुन ने कहा, हे अच्युत (श्री कृष्ण ) मेरे रथ को आप दोनों सेनाओं के मध्य में खड़ा कीजिये, यहाँ तक कि मैं युद्ध की इच्छा से खड़े हुए उन लोगों को देख लूँ (और जान लूँ कि) मुझे इस युद्ध में किन लोगों के साथ युद्ध करते हुए मुकाबला करना है।

भगवद गीता - श्लोक 1.22 View

अर्जुन ने कहा, हे अच्युत (श्री कृष्ण ) मेरे रथ को आप दोनों सेनाओं के मध्य में खड़ा कीजिये, यहाँ तक कि मैं युद्ध की इच्छा से खड़े हुए उन लोगों को देख लूँ (और जान लूँ कि) मुझे इस युद्ध में किन लोगों के साथ युद्ध करते हुए मुकाबला करना है।

भगवद गीता - श्लोक 1.23 View

दृष्टबुद्धि वाले धृतराष्ट्र के पुत्र ( दुर्योधन) की प्रसन्नता चाहने के लिए युद्ध में जो यहाँ युद्ध करने के लिए आये हुए हैं, मैं उन्हें देखना चाहता हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 1.24 View

संजय ने कहा, हे भरतवंशी राजन् (धृतराष्ट्र) ! इस प्रकार अर्जुन के कहने पर श्री कृष्ण (ने) दोनों सेनाओं (के) मध्य भाग (में) ( श्रेष्ठ रथ को) खड़ा करके।

भगवद गीता - श्लोक 1.25 View

भीष्म पितामह द्रोणाचार्य और सम्पूर्ण राजाओं के सामने (श्री कृष्ण ने) इस प्रकार कहा; हे पार्थ! यहाँ इकट्ठे हुए इन कुरुवंशियों को देखो।

भगवद गीता - श्लोक 1.26 View

उसके बाद अर्जुन (ने) उन दोनों ही सेनाओं में उपस्थित पिताओं को, पितामहों को आचायों को, मामाओं को, भाईयों को, पुत्रों को पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और शुभचिंतको को भी देखा।

भगवद गीता - श्लोक 1.27 View

अर्जुन ने उन सभी बान्धवों कों ( युद्ध स्थल पर आमने-सामने) खड़ा देखा तो ( उसका हृदय) दया से भर आया (और) वह दुखी होकर ऐसे बोले ।

भगवद गीता - श्लोक 1.28 View

युद्ध की इच्छा से अपने सामने इस कुटुम्ब समुदाय को देखकर, हे श्री कृष्ण ! मेरा शरीर कांप रहा है और मुख सुख रहा है।

भगवद गीता - श्लोक 1.29 View

मेरे शरीर में कँपकँपी (आ रही है) और रोंगटे खड़े हो रहे हैं। और हाथ से गाण्डीव धनुष छुट रही है और त्वचा भी जल रही है।

भगवद गीता - श्लोक 1.30 View

मेरा मन भ्रमित हो रहा है और इस प्रकार खड़े रहना ( मेरे लिए ) सम्भव नहीं है।

भगवद गीता - श्लोक 1.31 View

हे कृष्ण! मैं लक्षणों को (भी) विपरीत देख रहा हूँ। और हे कृष्ण!, युद्ध में अपने कुटुंब समुदायों को मार कर ( मुझे कोई ) लाभ भी नहीं दिखाई दे रहा है।

भगवद गीता - श्लोक 1.32 View

हे कृष्ण! हम लोगों को (स्वजनों के बिना) जीने से (भी) क्या लाभ ? भोगों से ( आनंद का क्या लाभ ?) राज्य से क्या (लाभ ? ) हे कृष्ण ! (इस कारण) न (तो) (मैं) विजय चाहता हूँ और न राज्य (चाहता हूँ), और न सुखों को (ही चाहता हूँ)

भगवद गीता - श्लोक 1.33 View

जिनके लिए हम राज्य भोग और सुख-शांती की इच्छा करते हैं, वे (ही) ये सब (अपने सम्बंधी) प्राण और धन को त्यागने युद्ध में खड़े हैं।

भगवद गीता - श्लोक 1.34 View

अपि त्रैलोक्य राजस्य हेतोः किम् नु मही-कृते । ( फिर भी) अगर आचार्य, पिता, पुत्र और उसी प्रकार पितामह, मामा, ससुर, पौत्र, साले तथा (अन्य ) सम्बंधी भी मुझ पर प्रहार करते हैं ( तो भी ) इनको (मैं) मारना नहीं चाहता हूँ। हे कृष्ण! तीनों लोकों ( का राज्य) मिले तो भी ( मैं इनको मारना नहीं चाहता), फिर पृथ्वी के लिये ( मैं इनको) (मारुँ ही) क्यों?

भगवद गीता - श्लोक 1.35 View

अपि त्रैलोक्य राजस्य हेतोः किम् नु मही-कृते । ( फिर भी) अगर आचार्य, पिता, पुत्र और उसी प्रकार पितामह, मामा, ससुर, पौत्र, साले तथा (अन्य ) सम्बंधी भी मुझ पर प्रहार करते हैं ( तो भी ) इनको (मैं) मारना नहीं चाहता हूँ। हे कृष्ण! तीनों लोकों ( का राज्य) मिले तो भी ( मैं इनको मारना नहीं चाहता), फिर पृथ्वी के लिये ( मैं इनको) (मारुँ ही) क्यों?

भगवद गीता - श्लोक 1.36 View

जनार्दन । इन सम्बंधियों को मारने से हमें पाप ही मिलेगा। हे कृष्ण! (इस कारण) धृतराष्ट्र के पुत्रों को मार कर हम लोगों को क्या प्रसन्नता होगी?

भगवद गीता - श्लोक 1.37 View

हे कृष्ण! अपने स्वजनों को मार (हम) कैसे सुखी होंगे? इसलिये अपने बान्धव (और) धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारना हमारे लिए उचित नहीं हैं।

भगवद गीता - श्लोक 1.38 View

अगर उन लोगों को कुल का विनाश करने और मित्रों की हत्या करने जैसा पाप करने में भी कोई दोष नहीं दिखाई दे रहा है। (तो इसका कारण है कि), लोभ ने ( इनके ) विवेक (सत्य के समझने की क्षमता को नष्ट कर दिया है।

भगवद गीता - श्लोक 1.39 View

हे जनार्दन ! (कृष्ण) उन (लोगों के दोष (चूक को) हम ठीक-ठीक जान गए । ( हम उसे ) पाप (भी) समझते ( हैं तो) कुल (के) विनाश को रोकने के लिए हमारे द्वारा क्यों ना प्रयास किया जाए ।

भगवद गीता - श्लोक 1.40 View

कहा जाता है कि (सत्ताधारी ) कुल के विनाश से सदा से चला आया कुलधर्म नष्ट हो जाता है और धर्म के नाश होने पर बचे हुए सम्पूर्ण समाज के कुलों पर अधर्म छा जाता है।

भगवद गीता - श्लोक 1.41 View

हे कृष्ण! अधर्म के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं। हे कृष्ण! स्त्रियों के दूषित होने पर वर्ण संकर (दोगले) पैदा हो जाते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 1.42 View

इन दोगलों से ही सागर (और) धरती के प्रकृति पर विनाश फैल जाता है और कुल को घोर अन्धकार में डालने वाले कुल के पूर्वज निःसन्देह नरक में गिराऐ जाते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 1.43 View

कुल का विनाश करने वाले (और) दोगले वंश को जन्म देने वाले इन दोषों से सदा से चले आये कुल धर्म और जातिधर्म नष्ट हो जाते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 1.44 View

हे जनार्दन ! जिन मनुष्यों के कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, (उन मनुष्यों का) ठिकाना सदा के लिए नरक में होता है, ऐसा (मैंने) ज्ञानियों से सुना।

भगवद गीता - श्लोक 1.45 View

आह! बड़े खेद की बात है कि राज्य से मिलने वाले सुख के लोभ में अपने स्वजनों को मारने के लिए हम लोग तैयार हो गये, जो कि हमने बहुत बड़ा पाप करने का निश्चय किया है।

भगवद गीता - श्लोक 1.46 View

अगर हाथों में शस्त्र लिए हुए, धृतराष्ट्र के पुत्र युद्ध के भूमि में सामना न करने वाले और बिना शस्त्र के मुझे मार भी दें (तो) वह मेरे लिये ज्यादा अच्छा होगा।

भगवद गीता - श्लोक 1.47 View

ऐसा कह कर उदास मन वाले अर्जुन बाण के साथ धनुष को त्याग करके युद्धभुमि में रथ के पिछे बैठ गए।