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अध्याय 2 - सांख्ययोग


INTRODUCTION :


इस अध्याय में सांख्या योग और बुद्धि योग का परिचय है। धार्मिक ग्रन्थों में सांख्य का शाब्दिक अर्थ है विश्लेषण । तो इस योग में धार्मिक तथ्यों का विश्लेषण किया जाता है। बुद्धि योग का साधारण अर्थ है, धर्म में क्या सही है उसे समझना।

● अर्जुन को इस बात का शोक था कि उसका सारा परिवार इस युद्ध में मारा जा सकता है, तो ईश्वर ने उसे शरीर और रुह के बारे में श्लोक नं. २.१३ से २.३० तक विस्तार से बताया कि शरीर के अंदर जो रुह है वह अविनाशी है। इस कारण किसी के मरने का शोक न करो। यह शरीर और रुह के सम्बन्ध का विश्लेषण सांख्य ज्ञान से है।

● श्लोक नं. २.३८ के बाद ईश्वर ने बुद्धियोग का वर्णन किया। इसमें मुख्य ज्ञान यह है कि मनुष्य को ईश्वर के आदेशानुसार ईश्वर में श्रद्धा रखते हुए, अपने अनिवार्य कर्तव्य (कर्मबन्धन) को पूरा करना चाहिए। बुद्धि योग का वर्णन श्लोक नं. २.३८ से २.५९ तक है।

● अन्त में ईश्वर ने कर्मबन्धन को पूरा न करने का कारण बताया है और वह है अपनी इच्छाओं के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करने की चाह ।
लिखा है उसी को संक्षिप्त में अर्जुन को समझाते हैं, ताकि उसका शोक दूर हो जाए।

● श्लोक नं. २.१८ के बाद से अधिकतर भगवद गीता ईश्वरवाणी है, जो ईश्वर ने श्री कृष्ण के माध्यम से अर्जुन और सारे मानवजाति से कहा है। ईश्वर वाणी को महर्षि वेद व्यास जी ने अपने शब्दों में ७०० श्लोकों में भगवद् गीता लिखी है।

● श्लोक नं. २.१८ से २.३० तक (Spirit) रुह का वर्णन है। आत्मा, प्राण के बारे में अधिक जानकारी के लिए नोट नं. N - २
पढ़िये। • श्लोक नं. २.३४ से २.६० तक कर्म बंधन का वर्णन है।

● श्लोक नं. २.६० से २.७२ में कर्मबंधन न पूरा करने के कारणों का वर्णन है।

SUMMARY OF SHLOKS :


● श्लोक नं. २.१ से २.९ तक अर्जुन के युद्ध न करने की इच्छा का वर्णन है।
● श्लोक नं. २.१० से श्लोक नं. २.१७ में श्री कृष्ण जी, जो कुछ पूरी भागवद गीता में

SHLOKS :

भगवद गीता - श्लोक 2.1 View

संजय ने कहा, जब ( श्री कृष्ण ने) दया (कृपा) से भरे हुए, दुःखी (अर्जुन को) (और उसकी) आँखो को पूरी तरह आँसुओ से भरी हुई। (देखा), तब श्री कृष्ण (ने) (अर्जुन से) यह शब्द कहे।

भगवद गीता - श्लोक 2.2 View

इस कठीन समय में तुम्हारे (मन में) यह कायरतापूर्वक (निश्चय) कहाँ से आया? हे अर्जुन! अज्ञानतापूर्वक कदम (कर्म) स्वर्ग की तरफ नहीं ले जाते, (बल्कि) अपमानकारक होते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 2.3 View

हे अर्जुन, कायरता को मत अपनाओ। यह बहुत बुरी बात है। तुम्हें शोभा नहीं देती है। हे अर्जुन! हृदय की (इस) दुर्बलता को छोड़कर ( युद्ध के लिए) खड़े हो जाओ।

भगवद गीता - श्लोक 2.4 View

अर्जुन ने कहा, हे मधुसूदन (कृष्ण)! युद्ध में मैं किस प्रकार भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य पर बाणों से उलट कर वार करूंगा। अरि-सुदन (कृष्ण)! यह लोग मेरे लिए आदरणीय हैं।

भगवद गीता - श्लोक 2.5 View

निःसंदेह, इस संसार में इन महान अनुभावि गुरुजनों की हत्या न करके यह अच्छा है कि मैं भिक्षा मांग कर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करूँ। जीवन के आनंद कामना की चाह में मैं इन गुरुजनों की हत्या भी कर दूं, परंतु आनंद लेने की वस्तुओं से आनंद लेने के लिए नि:संदेह यह संसार मुझे रक्त से लतपत (सना) हुआ मिलेगा।

भगवद गीता - श्लोक 2.6 View

(हम तो) यह भी नहीं जानते जो हमारे ( लिए) उचित है। या तो हम विजयी होंगे, या (वह) हम पर विजय प्राप्त करेंगे। परन्तु वह सब धृतराष्ट्र के पुत्र जो अभी हमारे सामने खड़े हैं, इनको मारकर हम कभी नहीं जीना चाहेंगे।

भगवद गीता - श्लोक 2.7 View

मेरे अपने स्वभाव में दयालुता है, जिसके कारण मैं गलती करता हूँ। इस कारण तुमसे सत्य धर्म को जानने के लिए मेरा हृदय व्याकुल है। अब तुमसे ईश्वर के वह आदेश पुछता हूँ जो मेरे लिए श्रेष्ठ हैं। निश्चित होकर मुझसे (वह उपदेश) कहो। मुझे केवल तुम्हारा ही सहारा है और मैं तुम्हारा शिष्य भी हूँ। इस कारण मेरा मार्गदर्शन करो।

भगवद गीता - श्लोक 2.8 View

अगर (मुझे) इस धरती पर शत्रुरहित, दुःख और कष्टरहित, देवताओं से पूर्ण, और सर्वश्रेष्ठ राज्य भी मिल जाए, तो भी नि:संदेह मुझे नहीं दिखाई देता है कि यह मेरे दुःख को हल्का करेगा।

भगवद गीता - श्लोक 2.9 View

संजय ने कहा, अर्जुन ने श्री कृष्ण जी से इस प्रकार कहा, हे कृष्ण! सत्य यह है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा। इस प्रकार कह कर अर्जुन चुप हो गए।

भगवद गीता - श्लोक 2.10 View

संजय ने कहा, हे भारत (धृतराष्ट)!, श्री कृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में उस उदास अर्जुन से मुस्कुराकर इस प्रकार यह बातें कही।

भगवद गीता - श्लोक 2.11 View

कृष्ण जी ने कहा, हे अर्जुन!, तुम ज्ञानी की श्री तरह से भी बात करते हो और (उनके लिए) शोक करते हो (जिनके लिए) शोक नहीं करना चाहिए। ज्ञानी उनके लिए शोक नहीं करते, जिनके प्राण चले गये और उनके लिए भी नहीं जिनके) प्राण नहीं गये।

भगवद गीता - श्लोक 2.12 View

(कोई ऐसा) काल न था, जब मैं (धर्म का उपदेश देने वाला) न रहा हूँ। और ऐसा कोई काल न था जब तुम (जैसे धर्म स्थापना करने वाले) न रहे हो। और कोई ऐसा काल न था, जब मानवजाति पर वाले यह राजा लोग ना थे। और इसके आगे भविष्य काल में भी ऐसा कोई युग ना होगा जब हम सब न रहेंगे।

भगवद गीता - श्लोक 2.13 View

देहधारी इस मनुष्य को जैसे बालकपन में, जवानी में और बुढ़ापे में एक अलग शरीर मिलता है। ऐसे ही देह के अन्दर जो रह है, उसे भी मृत्यु के बाद (स्वर्ग लोक में) एक नया शरीर प्राप्त होता हैं। इसलिए ज्ञानी लोग (मृत्यु के विषय में) भ्रम में नहीं रहते।

भगवद गीता - श्लोक 2.14 View

हे अर्जुन, जैसे जाड़े और गरमी के मौसम आते जाते रहते हैं। सुख-दु:ख (भी जीवन में ऐसे ही आते जाते रहते हैं।) परंतु यह आपको कितने कष्ट में डालते हैं, यह केवल इस बात पर निर्भर करता है कि आप उन्हें कैसा अनुभव करते हो । हे अर्जुन!, उनको (ऐसे ही सहन करो जैसे तुम मौसम के बदलने को सहन करते हो।)

भगवद गीता - श्लोक 2.15 View

हे पुरुषों में सबसे श्रेष्ठ अर्जुन, जो व्यक्ति परेशान नहीं होता और दुःख-सुख में एक समान रहता है। ऐसा ही व्यक्ति योग्य है स्वर्ग का, जहाँ मृत्यु नहीं ।

भगवद गीता - श्लोक 2.16 View

(यह संसार और मनुष्य का शरीर अस्थायी यह हैं) किन्तु हम इन्हें देख सकते (ईश्वर और मृत्यु ( के बाद का जीवन) सत्य है, किन्तु हम उन्हें नहीं देख सकते हैं। परंतु यह दोनों एक समान नहीं हैं। नि:संदेह इनके बारे में सत्य, तथ्य और महत्त्व ( Concluding position) एक ज्ञानी (तत्वदर्शी) ही देख सकता है |

भगवद गीता - श्लोक 2.17 View

(हे अर्जुन) नि:संदेह, तुम्हें जानना चाहिए कि

भगवद गीता - श्लोक 2.18 View

ईश्वर ने कहा, शरीर ( रखने वाले मानवजाति के) शरीर का अन्त होगा। किन्तु इसमें अविनाशी रुह है जिसका अनुमान नही लगाया जा सकता। जो सदैव एक जैसी रहती है। इस कारण, हे अर्जुन युद्ध करो।

भगवद गीता - श्लोक 2.19 View

जो मनुष्य इस ( अविनाशी रुह ) को मारने वाली मानता है। और जो मनुष्य इस (रुह घ) मरने

भगवद गीता - श्लोक 2.20 View

यह (रुह) न जन्म लेती है और न मरती है और किसी भी समय न इसका अस्तित्व था न इसका अस्तित्व है और न इसका अस्तित्व होगा। यह (रुह) सब से प्राचीन है। यह शरीर के मृत्यु के साथ नहीं मरती ।

भगवद गीता - श्लोक 2.21 View

जो मनुष्य जानता है कि यह (रुह) अविनाशि है, अनन्त है, अजन्मी अमर है, वह पुरुष कैसे किसी को मार सकता है। (या कैसे) किसी का वध करवा सकता है।

भगवद गीता - श्लोक 2.22 View

जैसे मनुष्य पुराने कपड़े त्याग देता है और दुसरे नये कपड़े धारण करता है। वैसे ही (यह रुह)

भगवद गीता - श्लोक 2.23 View

इस रुह के न शस्त्र से टुकड़े किये जा सकते हैं। न इस रुह को अग्नि जला सकती है, और न इस (रुह) को पानी गीला कर सकती है। और न (इस रुह को) वायु सुखा सकती है।

भगवद गीता - श्लोक 2.24 View

यह रुह टूटने वाली नहीं है। जलने वाली नहीं है। यह रुह भीगने वाली नहीं है। इस (रुह) को सुखाया नहीं जा सकता और नि:संदेह यह रुह अनन्त, न बदली जाने वाली, ब्रह्माण्ड में हर जगह रह सकने वाली और दृढ है। (अर्थात समय से पहले शरीर का साथ नहीं छोड़ती।)

भगवद गीता - श्लोक 2.25 View

ईश्वर ने कहा, यह (रुह) न दिखाई देने वाली है और यह (रुह) न समझ में आने वाली है। यह (रुह) न बदलने वाली है। इसलिए इस (रुह ) को जानने के बाद तुम्हें अवश्य चिंता नहीं करनी चाहिए।

भगवद गीता - श्लोक 2.26 View

फिर भी यदि तुम सोचते हो कि यह (रुह) हमेशा जन्म लेने वाली हैं या हमेशा मरने वाली है। तब भी हे अर्जुन इस जन्म और मृत्यु के विषय में तुम्हें इतनी चिन्ता नहीं करनी चाहिए।

भगवद गीता - श्लोक 2.27 View

निःसंदेह! जिसने जन्म लिया वह अवश्य मृत्यु पाएगा। इस लिए यह भी अटल है कि हम जन्म और मृत्यु की घटना से बच नहीं सकते। इसलिए हे अर्जुन! तुम्हें इस विषय में इतनी चिंतित नहीं होना चाहिए।

भगवद गीता - श्लोक 2.28 View

हे अर्जुन! सभी प्राणी जन्म से पहले प्रकट नहीं थे। बीच में जन्म के बाद दिखाई देते हैं और फिर मृत्यु के बाद दिखाई नहीं देंगे। तो (अगर वह ) ( मृत्यु पाकर अप्रकट हो गए, इसमें) शोक की क्या बात है।

भगवद गीता - श्लोक 2.29 View

कोई इस (रुह) को आश्चर्य की तरह देखता है। और वैसे ही दुसरे लोग इसका आश्चर्य की तरह वर्णन करते हैं। तथा अन्य लोग इस (रुह) को आश्चर्य की तरह सुनते हैं और सच तो यह है कि कुछ लोग इस (रुह) के बारे में सुनकर भी कुछ में नहीं समझ पाते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 2.30 View

हे अर्जुन! यह (रुह) जो सब मनुष्यों के शरीर में है यह अमर है। और इसकी हत्या नहीं की जा सकती। इसलिए तुम्हें सब प्राणियों के मृत्यु पर भी इतना शोक नहीं करना चाहिए।

भगवद गीता - श्लोक 2.31 View

नि:संदेह तुम्हारे अपने ऊपर जो धार्मिक कर्तव्य है उनके बारे में विचार करने के अतिरिक्त तुम्हें और कुछ विचार नहीं करना चाहिए क्योंकि एक क्षत्रिय के लिए धर्म की स्थापना के लिए युद्ध करने से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है।

भगवद गीता - श्लोक 2.32 View

हे अर्जुन! अपने आप इस प्रकार युद्ध का अवसर क्षत्रिय को मिलना बड़े सुख की बात है और यह अवसर स्वर्ग का खुला हुआ द्वार है।

भगवद गीता - श्लोक 2.33 View

अपने धार्मिक कर्तव्य के अनुसार यदि तुम धर्म की स्थापना हेतु यह युद्ध नहीं करोगे तो तुम अपना यश (सम्मान) को भी खो दोगे और तुम्हें पाप भी मिलेगा।

भगवद गीता - श्लोक 2.34 View

और नि:संदेह सब लोग तुम्हारे इस अपमानजनक कर्म की चर्चा करेंगे, और अपमानित होना मृत्यु से बढ़कर दुःखदायी है।

भगवद गीता - श्लोक 2.35 View

बड़े-बड़े योद्धा जिनके लिए तुम बहुत आदरणीय हो, समझेंगे कि तुमने रणभूमि से र के कारण पलायन किए, इस तरह तुम अपमानित हो जाओगे।

भगवद गीता - श्लोक 2.36 View

तुम्हारे शत्रु तुम्हारी योग्यता की निन्दा करते हुए बहुत से न कहने योग्य शब्द भी कहेंगे। उससे बढ़कर और दुःख की बात क्या होगी?

भगवद गीता - श्लोक 2.37 View

(हे अर्जुन यह तुम्हारे लिए) अनिवार्य (है कि तुम) सुख-दुःख, लाभ और हानि, हार-जीत में एक समान रहो ( धीरज रखो ) । युद्ध ऐसे करो जैसे करना चाहिए (अर्थात केवल धर्म की स्थापना के लिए)। इस तरह करने से तुम्हें पाप नहीं मिलेगा।

भगवद गीता - श्लोक 2.38 View

(हे अर्जुन यह तुम्हारे लिए) अनिवार्य (है कि तुम) सुख-दुःख, लाभ और हानि, हार-जीत में एक समान रहो ( धीरज रखो ) । युद्ध ऐसे करो जैसे करना चाहिए (अर्थात केवल धर्म की स्थापना के लिए)। इस तरह करने से तुम्हें पाप नहीं मिलेगा।

भगवद गीता - श्लोक 2.39 View

हे अर्जुन! मैंने तुम्हें यह सब वेदों के ज्ञान से समझाया जो तुम्हारे सोचविचार को ईश्वर से जोड़ देता है। लेकिन अब इस (उपदेश को) ध्यान से सुनो क्योंकि इससे तुम अपने कर्तव्य से को पूरा करने में प्रगती करोगे।

भगवद गीता - श्लोक 2.40 View

इस धर्म के ज्ञान के साथ जो कोई कर्म करता है तो ना उसका नाश होता है, न वह नरक में गिरता है। नि:संदेह, धर्म में थोड़ा सा काम जो धर्म ज्ञान के साथ किया जाता है, वह नरक में जाने के बड़े भय से मुक्त कर देता है।

भगवद गीता - श्लोक 2.41 View

हे अर्जुन! इस धरती पर जिन मनुष्यों के सोच विचार या समझ दृढ़, स्थिर, स्पष्ट होते हैं। वह एक (ईश्वर में विश्वास रखते हैं) और नि:संदेह, जिनके सोच-विचार या समझ दृढ या स्पष्ट या स्थिर नहीं है, वह अनंत (वस्तु या शक्ति की प्रार्थना करते हैं) और अलग-अलग मार्ग पर चलते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 2.42 View

हे अर्जुन! यह सब अज्ञानी और दिखावा करनेवाले लोग केवल बातें करते हैं। और वेदो के उपदेश की आलोचना करने में व्यस्त रहते हैं। इनका लक्ष्य इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं होता (अज्ञानी पुरुषों के लक्ष्य के बारे में निम्नलिखित श्लोक है।)

भगवद गीता - श्लोक 2.43 View

मन को आनन्द देने वाले कर्म में व्यस्त रहना। (सत्कर्म न करने के बावजूद) मृत्यु के बाद स्वर्ग में आराम वाले जीवन की आशा करना। केवल वह कर्म करना जो इस जीवन में अच्छा फल दे और मृत्यु के बाद अच्छा जीवन दे | केवल वही कर्म करना जो ईश्वर को प्रसन्न करने से अधिक हमारे अपने मन को प्रसन्न करता है। आनंद, सत्ता, असीम धन, और समृद्धि के लिए सदा प्रयास करते रहना।

भगवद गीता - श्लोक 2.44 View

जो आनंद और असीम धन और समृद्धी के लिए निरंतर प्रयास करते रहते हैं। इस प्रकार से विचार और प्रयास के कारण उनके विचार और बुद्धि उलझ जाती है। (इस कारण उनके पास ऐसे कोई कर्म) नहीं होते जो ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए दृढ संकल्प के साथ मन और बुद्धि से किया हो।

भगवद गीता - श्लोक 2.45 View

पवित्र वेदों में तीन गुण (सात्विक, तमस, रजस) का वर्णन है। हे अर्जुन, इन तीनों गुणों को छोड़ दो। सुख-दुःख से परेशान होना छोड़ दो। ईश्वर के आदेश का हमेशा दृढ़ता से पालन करो। केवल अपने सुख शांती और उन्नती के ही कार्य में मत लगे रहो। जनकल्याण के लिए भी प्रयास करो और केवल ईश्वर पर निर्भर रहने वाला बनो।

भगवद गीता - श्लोक 2.46 View

जिस प्रकार एक बड़े जलाशय (तालाब से) (मनुष्य की) सारी आवश्यकताएं पूरी हो जाती हैं। (किन्तु) छोटे तालाब से नहीं होती। इसी प्रकार जिसकी संपूर्ण श्रद्धा वेदों के उपदेशानुसार एक ईश्वर में होते हैं। (उसकी भी) सारी (आवश्यकताएं एक ईश्वर से पूरी हो जाती हैं।)

भगवद गीता - श्लोक 2.47 View

नि:संदेह अपने कर्तव्य के पालन करने का अधिकार तुम्हे है। (किन्तु कार्य के) परिणाम (पर तुम्हारा) कोई (नियंत्रण नहीं है)। न तुम (अपने) कर्मों के परिणाम का अपने आप को कारण या करने वाला समझो। और ना तुम ऐसे विचारधारा को अपनाओ जिसमें अपने कर्तव्य को पूरा नहीं किया जाता।

भगवद गीता - श्लोक 2.48 View

ईश्वर ने कहा, हे अर्जुन संगम छोड़ दो। अपने कर्तव्य का पालन करो। ईश्वर के संपर्क में रहो। सफलता और विफलता में धैर्य के साथ एक समान रहो। ऐसा करना धैर्य (कर्म) द्वारा ईश्वर की प्रार्थना है।

भगवद गीता - श्लोक 2.49 View

हे अर्जुन दिव्य ज्ञान जो तुम्हे ईश्वर से मिला है (उसके आधार) पर बुरे कर्मों से दूर रहो। अपनी समझ और सोचविचार को ईश्वर के शरण में देने का प्रयास करो। जो फल मिलने की लालच में सब कर्म करत हैं वह कंजुस हैं।

भगवद गीता - श्लोक 2.50 View

वह जिनका ईश्वर पर पक्का विश्वास है ( वह केवल ईश्वर को प्रसन्न करने वाले कर्म करते हैं।) और पुण्य और पाप दोनों विचार से मुक्त हो जाते हैं। इस कारण इस पृथ्वी लोक में ही अपनी श्रद्धा को ईश्वर से जोड़े रखने में लग जाओ। (वह कार्य जो) ईश्वर से जोड़ दे, वही कर्मों को करने की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली है।

भगवद गीता - श्लोक 2.51 View

पवित्र धार्मिक व्यक्ति जिसका ईश्वर में दृढ़ विश्वास होता है, वह उसके कर्म से उत्पन्न होने वाले लाभ को त्याग देता है। निसंदेह वह नरक में बार-बार जन्म लेने के बन्धन से मुक्त हो जाता है। और स्वर्ग को पाता है। जहाँ कष्ट पीड़ा नहीं ।

भगवद गीता - श्लोक 2.52 View

हे अर्जुन, जब (तुम्हारी) बुद्धि (धन और शक्ति प्राप्त करने के) मोह के दलदल से बाहर आ जाए, तब तुम धन और शक्ति की प्राप्ती के विषय में जो कुछ सुना, और जो कुछ सुनोगे उससे तुम प्रभावित नहीं हो जाओगे।

भगवद गीता - श्लोक 2.53 View

जब तुम लोगों की ( मोह माया की) बातों से प्रभावित न होने लगो, (तब तुम्हारी ) बुद्धि उस अवस्था को प्राप्त होगी जो स्थिर, दृढ संकल्प और ईश्वर की याद से जुड़ी, (और) (ईश्वर की प्रार्थना और उसकी कृपा से ) संतुष्ट रहती है ।

भगवद गीता - श्लोक 2.54 View

अर्जुन ने कहा, हे कृष्ण जिसका हृदय ईश्वर की श्रद्धा पर स्थित हो। जो एक ईश्वर में एकाग्र हो । (ऐसे) स्थिर बुद्धिवाले मनुष्य के क्या लक्षण होते है? वह कैसे बोलता है। कैसे रहता है। कैसे चलता है (अर्थात कैसे व्यवहार करता है?)

भगवद गीता - श्लोक 2.55 View

ईश्वर ने कहा, हे अर्जुन! जब मनुष्य अपनी इच्छा से उन सब कामनाओं को छोड़ देता है जो उसके मन में आते हैं और अपने आपमें ही संतुष्ट रहता है । तब ऐसे मनुष्य को ( ईश्वर की श्रद्धा पर) स्थिर बुद्धिवाला कहा जाता है।

भगवद गीता - श्लोक 2.56 View

दुःखों में जिसका मन आशा नही खोता, (और) सुख में और अधिक की चाह नहीं करता। (और जो) लालच, (ईश्वर के अतिरिक्त किसी और के) भय से (और जो बिनाकारण) क्रोध से मुक्त हो गया हो। ऐसे मननशील मनुष्य को ईश्वर की श्रद्धा पर स्थिर बुद्धि वाला कहा जाएगा।

भगवद गीता - श्लोक 2.57 View

जो हर प्रकार के परिस्थितियों में अप्रभावित रहता है। जैसे जब ( उसके साथ) (कुछ) अच्छा हो तो न बहुत खुश होता है और जब दुःख मिले तो न उन परिस्थितियों से नफरत करता है। (तब) समझो की उसकी बुद्धि (ईश्वर की श्रद्धा में) स्थिर है।

भगवद गीता - श्लोक 2.58 View

जिस प्रकार कछुआ अपने अंगो को सब ओर से समेट लेता है। इसी प्रकार जो मनुष्य सब इच्छाओं को इच्छा वाली वस्तुओं से हटा लेता है), तब उसकी बुद्धि (ईश्वर की श्रद्धा) में स्थिर हो जाती है।

भगवद गीता - श्लोक 2.59 View

(मन को) नियंत्रित करके, आनंद और भोग वाले वस्तूओं से दूर रहने का अभ्यास करके से मनुष्य आनंद लेने की इच्छा को रोक सकता है। किन्तु मन में जो आनंद वाली वस्तुओं का आनंद बसा है, उसका ईश्वर की कृपा दृष्टी से ही अन्त होता है।

भगवद गीता - श्लोक 2.60 View

नि:संदेह! (ईश्वर की कृपा दृष्टि इस कारण भी अनिवार्य है क्योंकि) हे अर्जुन! इच्छाए (आनंद लेने की मन की चाह) इतनी बलवान है कि वह दृढ संकल्प वाले मनुष्य के ( मन को) भी बलपूर्वक पराजित कर देती है, जो इसे बलपूर्वक वश में करने का प्रयत्न करता है।

भगवद गीता - श्लोक 2.61 View

इन सब बलवान इच्छाओं को वश में करके अपने मन को मुझ सबसे महान ईश्वर में लगाए रखो। निःसंदेह जिसकी इच्छाऐं वश में होंगी, उसी की ईश्वर में श्रद्धा स्थिर होंगी। मनुष्य के विनाश का आरम्भ कैसे होता हैं

भगवद गीता - श्लोक 2.62 View

इन्द्रियों को अच्छी लगने वाली वस्तुओं के विषय में विचार करने से मनुष्य के हृदय में उनके लिए लगाव जन्म लेता है। इस प्रकार आनंद लेने के लगाव से आनंद करने की इच्छा जन्म लेती है। और जब इच्छाएँ पूरी नहीं होती हैं, तब मन में क्रोध या निराशा जन्म लेती है।

भगवद गीता - श्लोक 2.63 View

क्रोध से मन मोहित हो जाता है (मन वश में नहीं रहता ) | मन के सम्मोहित होने से सोच समझ उलझ जाती है। सोच समझ के उलझने से बुद्धि का नाश होता है। बुद्धि के नाश होने से मनुष्य बर्बाद हो जाता है।

भगवद गीता - श्लोक 2.64 View

जो क्रोध, लालच, और घृणा से मुक्त है, और अपने आपको नियंत्रण में रखकर मन चाही वस्तुओं का उपयोग करता है। ऐसा पवित्र पुरुष ईश्वर की कृपा को पा लेता है।

भगवद गीता - श्लोक 2.65 View

ईश्वर की कृपा पाने वाला मनुष्य, सब प्रकार के दुःख और हानि होने पर भी उसका मन शांत रहता है। निःसंदेह ऐसे पुरुष की बुद्धि बहुत जल्द ही ईश्वर की श्रद्धा पर स्थिर हो जाएगी।

भगवद गीता - श्लोक 2.66 View

अगर ईश्वर में श्रद्धा नहीं है तो सत बुद्धि नहीं होगी। (अगर ईश्वर में) श्रद्धा नहीं है तो संयम नहीं होगा। संयम नही (होगा तो) शान्ति नहीं होगी। (जब) शांन्ति नहीं होगी (तो जीवन में) सुख कहाँ (से होगा।)

भगवद गीता - श्लोक 2.67 View

जिस प्रकार तेज़ हवा नाव को पानी में बहा ले जाती है। नि:संदेह (इसी प्रकार) जिस (किसी एक) इच्छा में भी बेकाबू मन लग जाए, वही (एक इच्छा) उसकी बुद्धि को बहा ले जाती है, (और) भटका देती है।

भगवद गीता - श्लोक 2.68 View

इसलिए हे अर्जुन जिसने सारी इच्छाओं को, इच्छा वाली वस्तुओं से रोक लिया और वश में कर लिया। उसकी बुद्धि ईश्वर की श्रद्धा में स्थिर हो जाती है।

भगवद गीता - श्लोक 2.69 View

जो सम्पूर्ण प्राणियों के लिए रात का समय है। वह समय इच्छाओं को वश में रखने वालों के लिए जागने का समय है (ईश्वर की प्रार्थना के लिए।) और जिस (समय) सम्पूर्ण प्राणी जागते है। वह (समय) महापुरुषों की दृष्टि में रात है।

भगवद गीता - श्लोक 2.70 View

जिस प्रकार नदियों का पानी चारों ओर से समुद्र में गिरता (किन्तु) (समुद्र) शान्त रहता है। इसी प्रकार वह सज्जन ( जिसने अपनी इच्छाओं को

भगवद गीता - श्लोक 2.71 View

जिस व्यक्ति ने सब प्रकार के आनंद करने के इच्छाओं को त्याग दिया हो। वह सज्जन जो आनंद भोगने की तीव्र इच्छा और वासना के बिना, अहंकार के बिना जीवन व्यतीत करता हो। वही व्यक्ति शांति प्राप्त करेगा।

भगवद गीता - श्लोक 2.72 View

हे अर्जुन, यही ईश्वर की श्रद्धा को हृदय में (दृढ़ता से) स्थित (करने का मार्ग है।) इस (दृढ़ श्रद्धा को) प्राप्त करके कोई मोहित नहीं होता, सत्य मार्ग नहीं भूलता। जो इस स्थिती में मृत्यु तक जमा रहता है, नि:संदेह वह ईश्वर के शान्ती के धाम (स्वर्ग) प्राप्त कर लेता है।