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अध्याय 17 - श्रद्धात्रय विभाग योग


INTRODUCTION :


किसी कॉलेज में (Final year) अंतिम वर्ष के छात्रों के लिए (Preliminary examinations) प्रारंभिक परीक्षा होती है। इसी प्रकार जो व्यक्ति तरह से धार्मिक हो गया है। या जो धार्मिक नियमों के पालन का पूरा प्रयास करता है। यह अध्याय उसके लिए प्रारंभिक परीक्षा का पेपर है, (चेक लिस्ट) जांच सूची है।

सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण शिक्षा जो इस अध्याय में है, वह यह है कि अवतारित ग्रंथ में लिखे आदेशों का पालन करना अनिवार्य है। अवतारीत ग्रंथ है वेद और इस भगवद गीता की शिक्षा। यदि कोई व्यक्ति सुनी-सुनाई बातों के अनुसार धार्मिक है, और इन ग्रंथो को नहीं मानता है, तो उसे श्लोक नं. १७.६ में आसुर कहा है।

SUMMARY OF SHLOKS :


● श्लोक नं. १७.२ और १७.३ में इस सत्य का वर्णन है कि जैसे मनुष्य में सत्व, रजो, और तमों गुण जन्म से होते हैं, इसी प्रकार ईश्वर में श्रद्धा के गुण भी हर व्यक्ति में जन्म से होते हैं। उसके बाद जब वह समाज और परिवार की संस्कृति के अनुसार जीवन व्यतीत करता है तो उसके गुण और श्रद्धा भी समाज और परिवार के गुणों और श्रद्धा के अनुसार हो जाते हैं।

●श्लोक नं. १७.४ में लिखा है कि तीनों गुण वालों की प्रार्थनाएं भी अलग अलग होती हैं। सत्व गुण वाले ईश्वर की प्रार्थना करते हैं। रजो गुण वाले यक्ष और राक्षसियों की, और तमो गुण वाले, भूत-प्रेत और दूसरों की प्रार्थना करते हैं। तो मनुष्य जिनकी प्रार्थना करते हैं;
(वह) उनसे अपने आपको पहचान लें कि उसका स्वभाव किस गुण का है।

●श्लोक नं. १७.४ से १७.१० में तीनों गुणों वालो के प्रिय भोजन का वर्णन है। मनुष्य अपने पसंद के भोजन से अपने स्वभाव को पहचान सकता है कि वह सात्विक है या रजो है है या तमो गुण का है।

● श्लोक नं. १७.११ से १७.१३ में तीनों
गुण वाले यज्ञ किस तरह करते हैं इसका वर्णन है। (स्वामी रामसुखदास जी के श्लोक नं. १६.१ की व्याख्या में यज्ञ को अनिवार्य कर्तव्य का पालन करना कहा है)

● श्लोक नं. १७.१४ से १७.१६ में शरीर के, बातचित के और मन (सोच विचार) के तप का वर्णन है।
तप का अर्थ है वह दृढ संकल्प और शारीरिक कृत्य (Act) जो धार्मिक नियमों के अनुसार हो और जिससे शरीर को कष्ट हो और जिसका लक्ष्य मन, शारीरिक अंगो, और आत्मा को वश में रखना हो ।

१७.१७ से १७.२२ तक इसका वर्णन है कि लोग पुण्य के लक्ष्य से तप और दान करते हैं। किन्तु स्वभाव के अनुसार तीनों गुणों वालों के तप और दान भी अलग-अलग प्रकार के होते हैं। तो मनुष्य अपने आप पर ध्यान करे और सात्विक होने का प्रयास करे।

● जितने देवी देवता है, जितने अवतार हैं, उनके बारे में हमें सब कुछ पता है किन्तु आकाशवाणी या ईश्वर या ब्रह्म के बारे में हमे कुछ भी ज्ञान नहीं है। इसी भगवद गीता में ईश्वर ने कहा है कि वेदों का पढ़ना मनुष्य को विष के समान लगता है किन्तु इसका परिणाम अमृत की तरह है। हम वेद नहीं पढ़ते इस कारण हमें ईश्वर के बारे में कुछ पता नहीं। ऋग्वेद में मुख्य विषय ईश्वर की स्तुति, प्रशंसा और प्रार्थना ही है।

● दयालु ईश्वर ने कृपा किया और इस दिव्य ग्रंथ में भी अपने तीन नाम बताए। उन नामों का महत्त्व इस प्रकार है।

श्लोक नं. १७.२३ में ईश्वर ने अपने तीन नाम ॐ तत और सत बताए । ॐ नाम का महत्त्व यह है कि ईश्वर ने मानवजाति पर कृपा किया और अपना एक नाम बताया, जिसको किसी भी काम के आरंभ करने के पहले कहने से वह काम सफल होता है। कठिनाईयाँ कम होती हैं। और उससे लाभ प्राप्त होता है। मरते समय कहने से स्वर्ग प्राप्त होता है। इस कारण ईश्वर ने मानवजाति को आदेश दिया कि प्रार्थना और हर काम के पहले ॐ कहा करें।
तो यह नाम मुंह से कहकर आवाज़ से ईश्वर को याद करने वाला नाम है।

● ईश्वर का दूसरा नाम है ततः इसका अर्थ है "वह।"
जब कोई बड़ी घटना होती है या ऐसा काम होता है जो मनुष्य के नियंत्रण से बाहर होता है तो हम
कहते हैं।

“उसकी इच्छा थी।”

हमारे उस कहने का अर्थ होता है कि ईश्वर की इच्छा थी। ईश्वर के इस नाम का महत्त्व यह है कि हम जानते हैं "वह" है, जो देख रहा है, सुन रहा है, कृपा करेगा, स्वर्ग देगा। और हम उसे प्रसन्न करने यज्ञ, दान और तप करते हैं। अर्थात शारीरिक कर्म के द्वारा हम उसे प्रसन्न करते हैं। तो इस नाम का महत्त्व यह है कि 'वह' देख रहा है इसे सदैव याद रखो और अच्छे कर्म को।

● ईश्वर का तीसरा नाम है सत (सत्य या सच्चाई या हक)

इसका अर्थ इस प्रकार समझने का प्रयास करें। ईश्वर सत है, ईश्वर हमेशा था, है और रहेगा। अर्थात ईश्वर स्थायी है। पुण्य का परिणाम भी स्थायी होता है। वह सदा रहता है। मरने के बाद आपको स्वर्ग में मिलेगा और सदैव आपके साथ रहेगा।

दान देना पुण्य है। आपने दान दिया किन्तु आपका लक्ष्य प्रसिद्धि प्राप्त करना था। तो इस पुण्य के कर्म से आप केवल प्रसिद्ध होंगे पुण्य नही कमा पाओगे।
तो अंदर की भावना जो कोई न देख सकता है न परख सकता है, कर्मों का फल उस भावना पर निर्भर करता है।

तो जब मनुष्य अंदर से सत होगा सच्चाई पर होगा तब ही वह शारीरिक तौर से जो करता है वह पुण्य कहलाएगा। और उसका परिणाम स्थाई होगा। तो ईश्वर का तीसरा नाम सत है। हम अपने लक्ष्य को, सोच विचार को, मनोदृष्टी को नज़रिये को, सत करके उसको याद करते हैं। तो फिर जैसे ईश्वर स्थायी है हमारे कर्म का पुण्यफल भी स्थायी होगा।

● तो यह श्लोक नं. १७.२३ स्वर्ग दिलाने वाला श्लोक है। हम हमेशा ॐ कहकर किसी भी काम का आरंभ करें। हमेशा याद रखें, कि 'वह' देख रहा है। और हमारे अंदर सदैव सत की भावना हो। कोई दिखावा, कोई स्वार्थ, कोई छल-कपट न हो। केवल शुद्ध सत रहे।

अन्त में ईश्वर ने श्लोक नं. १७.२८ में कहा कि ईश्वर में श्रद्धा के बिना यज्ञ, दान और तप सब असत है। न इसका इस संसार में और न (प्रेत्य) मृत्यु के बाद कुछ फल मिलेगा।

SHLOKS :

भगवद गीता - श्लोक 17.1 View

अर्जुन ने कहा, वह जो धार्मिक शास्त्रों के नियमों को नहीं मानते, किन्तु ईश्वर की प्रार्थना करते हैं पूरी श्रद्धा के साथ | हे श्री कृष्ण! उनके श्रद्धा की क्या हकीकत है ? क्या वह सत्व गुण वाले हैं या रजो गुण वाले हैं, या तमो गुण वाले हैं?

भगवद गीता - श्लोक 17.2 View

ईश्वर ने ( श्री कृष्ण के माध्यम से) कहा, (जिस तरह) तीन गुण सत्व, रजो, तमो वाले मनुष्य में उत्पन्न किए गए हैं। इसी प्रकार वह एक ईश्वर में श्रद्धा भी जन्म से ही गुण शरीर मनुष्य के स्वभाव में उत्पन्न किया गया है। सुनो और अच्छी तरह जान लो कि जिस तरह सत्व गुण, रजो गुण, और तमो गुण (मनुष्य में है), नि:संदेह, वह एक ईश्वर में श्रद्धा भी इसी तरह मनुष्य के स्वभाव में जन्म से है ।

भगवद गीता - श्लोक 17.3 View

हे भारत (अर्जुन)! सारे लोगों में एक ईश्वर में श्रद्धा जो सत्वगुण की तरह है वह जन्म से ही मनुष्य के अंदर होता है। उसके बाद जो मनुष्य जिस प्रकार के श्रद्धा के साथ इस संसार में जीवन व्यतीत करता है वह नि:संदेह उसी श्रद्धा के साथ होता है जब वह मृत्यु पाता है।

भगवद गीता - श्लोक 17.4 View

( मनुष्य तीन प्रकार की श्रद्धा के साथ जीवन व्यतीत करता है, और उसी श्रद्धा के साथ मृत्यु पाता है) सत्व गुण वाले ईश्वर की प्रार्थना करते हैं। रजो गुण वाले यक्ष और राक्षसों की प्रार्थना करते हैं। तमो गुण के लोग मरे हुए लोगों की आत्माओं की और भूतों की और अन्य (शक्तियों की) प्रार्थना करते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 17.5 View

पाखंड, कपट, अहंकार, अपनी इच्छा पूर्ति में व्यस्त, क्रोध और सत्ता से प्रभावित होकर वह जो शास्त्रों को न मानते हुए जीवन व्यतीत करता है। वह तप: (ईश्वर की प्रार्थना करने वाले) लोगों को घोर यातनाएं देते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 17.6 View

नि:संदेह, अनेक प्रकार के प्राणियों के शरीर का निर्माण करके, उन्हें स्थित रखने वाले, और शरीर के अंदर हृदय में स्थित मुझ न दिखाई देने वाले ईश्वर को यह लोग हृदय से निकाल देना चाहते हैं। इन लोगों को निश्चय ही असूर समझो। (जो प्रश्न अर्जुन ने श्लोक नं. १७.१ में किया था उसका उत्तर इस श्लोक में है)

भगवद गीता - श्लोक 17.7 View

निःसंदेह सारे मनुष्यों की प्रिय आहार, यज्ञ, तप, और दान भी तीन प्रकार के होते हैं। उन सबके इस भेद ( अन्तर को) मुझसे सुनो।

भगवद गीता - श्लोक 17.8 View

सात्विक गुण वाले मनुष्यों के प्रिय आहार भोजन के पदार्थ रस युक्त, चिकने घी युक्त टिवाड (अधिक समय तक शक्ति देने वाले) होते हैं, जो आयु, सत्व गुण, शक्ति, अच्छे स्वास्थ्य को बढ़ाने वाले और हृदय को आनंद और शांति देने वाले होते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 17.9 View

रजो गुण वालों का प्रिय भोजन अति कड़वा, अति खट्टा, अति नमकीन, अति गरम, अति तीखा, अति रुखा, और जलन करने वाला होता है। जो शोक और रोगों को उत्पन्न दुःख, करता है।

भगवद गीता - श्लोक 17.10 View

तमो गुण वालों का प्रिय भोजन सड़ा हुआ, रसरहित, दुर्गन्धित, बासी और जूठा होता है। तथा अपवित्र भी होता है।

भगवद गीता - श्लोक 17.11 View

जो यज्ञ फल की अपेक्षा किए बिना, धार्मिक नियमों के अनुसार, अपना कर्तव्य समझकर, और मन को एकाग्र करके किया जाता है। इसी तरह जो भी पुण्य के कार्य किए जाते है नि:संदेह वह सात्विक गुण से प्रेरित होकर किए जाते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 17.12 View

किन्तु हे अर्जुन! जो (पुण्यकर्म) किया जाता है फल की अपेक्षा रखते हुए, दिखावे के लिए, सांसारिक लाभ के लिए, तुम उन यज्ञ को नि:संदेह रजो गुण से प्रेरीत समझो।

भगवद गीता - श्लोक 17.13 View

वह यज्ञ जो धार्मिक नियमों को न मानते हुए, बिना अन्न दान के, बिना मन्त्रों के पढ़े, बिना दक्षिणा दिए ( किए जाते हैं) यह कर्म तमो गुण से प्रेरित है, ऐसा माना जाता है।

भगवद गीता - श्लोक 17.14 View

ईश्वर कह रहा है कि, ईश्वर (का), गुरु का, ज्ञानियों का आदर करना। स्वच्छ रहना, सरलता के साथ ईश्वर के आदेश अनुसार जीवन व्यतीत करना । हिंसा से दूर रहना यह शरीर का तप है।

भगवद गीता - श्लोक 17.15 View

वह वाक्य (शब्द), जो किसी को संकट, पीडा, विपत्ती में न डालने वाले हों, सच्चे, प्रिय और लोगों के हित में हों, और जो (शब्द) वेदों में सोच विचार करके और उनको पढ़कर बोले जाते हैं। नि:संदेह ऐसे शब्द का बोलना वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है।

भगवद गीता - श्लोक 17.16 View

मन का शांत होना, दयालु होना, चुप रहना, अपने आपको वश में रखना, जीवन के उद्देश्य को शुद्ध (पवित्र) रखना। इसी तरह यह सारे मन सम्बन्धी तप कहे जाते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 17.17 View

ईश्वर कह रहा है कि एक ईश्वर में श्रद्धा रखने वाले मनुष्य तीन प्रकार से तप करते हैं। वह निःस्वार्थ कर्म करते हैं। (ईश्वर के अतिरिक्त) किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखते। सदैव ईश्वर की याद में डुबे रहते हैं।, यह सारे सात्विक गुण से प्रेरीत गुण के कारण होते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 17.18 View

ईश्वर कह रहा है कि यदि कोई ईश्वर में श्रद्धा रखने वाला प्रशंसा पाने, मान सम्मान पाने, दिखावे के लिए, सांसारिक लाभ के लिए जो भी तप करता है, उसे रजो गुण से प्रेरित समझो। निःसंदेह इस संसार में यह अशांति पैदा करता है। और यह कर्म अस्थायी है। इसका पुण्य नहीं मिलेगा।

भगवद गीता - श्लोक 17.19 View

जो तप मूर्खता से, अपने आपको पीड़ा देकर, अथवा दूसरों को कष्ट देने के लिये किया जाता है, वह (तप) तमो गुण से प्रेरित कहा गया है।

भगवद गीता - श्लोक 17.20 View

(अगले तीन श्लोकों में अपने दान देने के स्वभाव से अपने आपको पहचानने की शिक्षा हैं :) दान जो दिया जाए, वह देने के योग्य हो बेकार वस्तु ना हो। ऐसे को दिया जाए जो उसका बदला नहीं दे सकता अर्थात, असहाय, निर्धन को दिया जाए। उचित स्थान पर दिया जाए। उचित समय पर दिया जाए। और दान पाने के योग्य व्यक्ति को दिया जाए। इस तरह जो दान दिया जाता है वह दान सात्विक गुण से प्रेरित कहा जाता है।

भगवद गीता - श्लोक 17.21 View

जो दान वापस मिलने की आशा रखते हुए उपकार जताते हुए और अपने लाभ के लिए, लोगों से उसका फल (फायदा) पाने के उद्देश्य (लक्ष्य) से, या पछताते हुए दिया जाए वह दान रजो गुण से प्रेरित समझो।

भगवद गीता - श्लोक 17.22 View

जो दान गलत स्थान पर, गलत समय पर, ऐसा व्यक्ति जो दान लेने के योग्य नहीं ऐसे को दान दिया जाए। या गलत काम के लिए, या निर्धन को अपमानित करते हुए जो दान दिया जाए, वह दान तमो गुण से प्रेरित समझो।

भगवद गीता - श्लोक 17.23 View

सामाजिक जीवन के आरंभ में ब्राह्मणों को ईश्वर ने निर्देश दिया कि ईश्वर के तीन नामों से (जो (यज्ञ) यज्ञ (च) और (वेदा:) वेदों की शिक्षा का(विहिता:) प्रबंध किया करते थे।

भगवद गीता - श्लोक 17.24 View

इसलिए ईश्वर के कहे हुए आदेश के अनुसार, एक ईश्वर की प्रार्थना करने वाले, यज्ञ, दान, तप और क्रिया के आरम्भ में सदैव ॐ कहते

भगवद गीता - श्लोक 17.25 View

मोक्ष चाहने वाले विभिन्न प्रकार के सत्कर्म करते थे, जैसे कि फल की अपेक्षा किए बिना कर्म करना, यज्ञ, तप क्रिया और दान- क्रिया। इस तरह (अच्छे कर्म से वह ईश्वर के नाम) तत को याद करते थे।

भगवद गीता - श्लोक 17.26 View

हे पार्थ (अर्जुन), सत शब्द कहा जाता है ईश्वर के अविनाशी गुण सत को याद करने के उद्देश्यसे और ईश्वर के श्रेष्ठ, शुभ, उपकार वाले गुणों के लिए भी और इसी तरह यह (शब्द) उपयोग होता है, उन कर्मों के लिए जो ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए किए जाते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 17.27 View

यज्ञ, तपस्या, दान और ईश्वर की प्रार्थना में स्थित हो जाना और यह सब भी सत कहलाते हैं और नि:संदेह वह कर्म जो इन शुभ उद्देश के लिए किए जाए, नि:संदेह वह भी सत भाव को प्रकट करते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 17.28 View

हे पार्थ (अर्जुन)! ईश्वर में श्रद्धा के बिना जो दुआएँ मांगी जाती है, दान किया जाता है और जो भी कर्म किए जाते हैं, वह सब व्यर्थ है। ऐसा कहा जाता है, उन (सत्कर्मों का) न तो इस संसार में और न मृत्यु के बाद कुछ फल मिलेगा।