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अध्याय 18 - मोक्ष सन्यास योग


INTRODUCTION :


● इस अध्याय में अर्जुन के लिए और सारी मानवजाति के लिए निर्णय किस तरह लिया जाए इसका ज्ञान है।

● सबसे पहले सन्यास और त्याग के अंतर को समझाया गया है और ईश्वर ने त्याग को सन्यास से श्रेष्ठ बताया है। जबकि समाज में सन्यास को श्रेष्ठ समझा जाता है।

सन्यास और त्याग के अंतर को एक साधारण उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं। यदि कोई आपसे कहे कि यह मेरा सारा व्यापार ले लो और सुख से जीवन व्यतीत करो, और आप कहो कि नहीं, मुझे नहीं चाहिए। मैं साधारण जीवन जीना चाहता हूँ। तो यह सन्यास हुआ।

और यदि आप उस व्यापार को ले लेते हो। धन कमाते हो और सब धन पुण्य के काम में खर्च करके स्वयम् साधारण जीवन जीते हो, तो यह त्याग हुआ और ईश्वर ने त्याग को सन्यास से श्रेष्ठ कहा है।

● इस्में अर्जुन के लिए ये सीख या शिक्षा यह है कि उनका यह सोचना कि मेरे लिए इस युद्ध लड़ने से अच्छा है कि भिक्षा मांगकर अपना पेट भरुं, गलत है। (भगवदगीता २.५) अर्जुन को युद्ध करके विजयी होना है। राज मिलने के बाद यदि वह साधारण जीवन बिताते हैं, तो यह अधिक श्रेष्ठ है। यह उनका त्याग हुआ जो सन्यास से श्रेष्ठ है।

SUMMARY OF SHLOKS :


● श्लोक नं. १८.४ से १८.९ तक त्याग के तीन प्रकार का वर्णन है। इससे मानवजाति अपने कर्म को समझे और पुण्य करे।

●अध्याय नं. २ में हमने पढ़ा कि अर्जुन इस युद्ध के बारे में Confused थे कि यह उचित है या गलत है। और उनका यह भी सोचना था कि इस युद्ध से वह नरक में जा सकते हैं। तो श्लोक नं. १८.१०-१८.११-१८.१२ और १८.१७ में ईश्वर ने कहा कि निःस्वार्थ कर्म करने वाला कभी नरक में नहीं जाता।

● ईश्वर ने श्लोक नं. १८.१३, १८.१६ में अपने कर्मों को सही है या गलत है इसको जांचने का मापदंड (Standard) बता दिया। इससे अर्जुन और सारी मानवजाति अपने कर्मों को परख सकती है कि वह सही है या गलत है।

● श्लोक नं. १८.१८ में ईश्वर ने कहा कि मानवजाति को सत्कर्म के लिए प्रेरित करने के लिए तीन कारण हैं।
१. धार्मिक ज्ञान
२. अन्य लोक का जीवन
३. ईश्वर

और किसी भी कर्म के तीन अंश (Elements) हैं।

१. कर्म की इच्छा
२. कर्म को करने वाला व्यक्ति
३. कर्म

● श्लोक नं. १८.१९ में ईश्वर ने कहा कि ज्ञान, कर्म और कर्म को करने वाला व्यक्ति भी तीन प्रकार के होते हैं। मनुष्य को इन्हें पहचानना चाहिए और केवल सात्विक गुण से प्रेरीत ज्ञान और कर्म को अपनाना चाहिए।

●श्लोक नं. १८.२० से १८.२२ में तीन कार के ज्ञान का वर्णन है।

●श्लोक नं. १८.२३ से १८.२५ में तीन प्रकार के कर्म का वर्णन है।

● श्लोक नं. १८.२६ से १८.२८ में तीन प्रकार के कर्म करने वालों का वर्णन है।

मनुष्य कुछ सोचता है और किसी काम का दृढ़ संकल्प करता है। किन्तु ईश्वर उसे उस काम के पुण्य देंगे या पाप। यह कैसे निश्चित किया जाए? दयालु ईश्वर ने श्लोक नं. १८.३० से १८.३५ में इसका मापदंड दिया जिसमें अर्जुन और सारी मानवजाति अपने सोच और संकल्प को जांच सकती है कि वह केवल सात्विक गुण से प्रेरित हो । कारण कि रजो और तमो गुण से •प्रेरित कर्म का फल केवल पाप होता है।

●श्लोक नं. १८.२९ से १८.३२ तक सोच समझ परखने का वर्णन है।

● श्लोक नं. १८.३३ से १८.३५ तक अपने संकल्प को परखने का वर्णन है।

● अर्जुन सुख शान्ति के लिए युद्ध नहीं करना चाहते थे। तो ईश्वर ने श्लोक नं. १८.३६ श्लोक नं. १८.३९ में बताया कि स्थायी सुख शान्ति कैसे मिलेगी।

● ईश्वर ने अर्जुन को शास्त्रीय गुणों के साथ बनाया था। किन्तु अर्जुन पंडितों की तरह शान्ति वाला काम करना चाहते थे। तो ईश्वर ने श्लोक नं. १८.४१ से १८.४८ तक विस्तार से समझाया कि ईश्वर ने मानवजाति को चार गुणों के साथ जन्म दिया है। जिसमें जो गुण है वह उसे पहचाने और उन्हीं के अनुसार अपने कर्म करे। इसी में सफलता है।

● जैसे विद्यार्थी की पुस्तकों में अध्याय के अन्त में उस अध्याय का सार होता है। इसी प्रकार श्लोक नं. १५.५१ से १८.५४ तक इस दिव्य ग्रंथ का सार है।

● श्लोक नं. १८.५५ में ईश्वर ने कहा कि ईश्वर की प्रार्थना से व्यक्ति ईश्वर तक direct पहुंच सकता है। ईश्वर तक पहुंचने के लिए मनुष्य को किसी और की आवश्यकता नहीं है।

अब दिव्य ग्रंथ का अन्त हो रहा है इस कारण ईश्वर अर्जुन को सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य बता रहे हैं जिसे जीवन में कभी भी भूलना नहीं चाहिए, वह निम्नलिखित है।

१. (श्लोक नं. १८.५६) सफलता केवल ईश्वर की (मत प्रसादत) कृपादृष्टि से ही मिली है।

२. (श्लोक नं. १८.५७) सब कुछ ईश्वर के लिए करना चाहिए।

३. (श्लोक नं. १८.५८) कठिनाईयों से
केवल ईश्वर की कृपा से निकला जा सकता है ।

४. (श्लोक नं. १८.६०) मनुष्य वही करेगा जो उसके भाग्य में होगा।

५. (श्लोक नं. १८.६१) मनुष्य इस संसार में परीक्षा दे रहा है। यह जीवन अस्थाई है। इस कारण स्थायी जीवन जो मृत्यु के बाद होगी उसे सदैव याद रखना चाहिए।

६. (श्लोक नं. १८.६२) अपने आपको ईश्व की शरण में दे दो तो स्वर्ग मिलेगा।

७. श्लोक नं. १८.६६ चिंता न करते हुए सारे धर्मों को छोड़कर एक ईश्वर की शरण में आ जाओ वह तुम्हारे सारे पाप क्षमा कर देगा।

● इस श्लोक के साथ ईश्वर के दिव्य आदेश
पूर्ण हुए। इसके बाद ईश्वर ने इस ज्ञान के प्रचार के नियम और महत्त्व का वर्णन श्लोक नं. १८.६७-१८.७१ में किया है।

●श्लोक नं. १८.७४ से १८.७८ तक संजय जिसने सब कुछ अपनी आंखों से देखा और कानों से सुना था, अपने विचार व्यक्त करते हैं।

SHLOKS :

भगवद गीता - श्लोक 18.1 View

अर्जुन ने कहा, हे महाबाहो ( श्री कृष्ण) ! हे हृषीकेश (श्री कृष्ण)! हे केशी को प्रजीत करने वाले (श्री कृष्ण)! सन्यास की वास्तविकता (सत्य, सच्चाई) के बारे में, और त्याग की वास्तविकता (सत्य, सच्चाई) के बारे में अलग अलग जानने की इच्छा रखता हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 18.2 View

ईश्वर ने ( श्री कृष्ण के माध्यम से) कहा, मन को आनंद देने वाले कर्मों को छोड़ देने को ज्ञानी सन्यास समझते हैं। सारे कर्मों के फल को त्याग देने को बुद्धिमान लोग त्याग कहते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 18.3 View

इसी तरह और दूसरे लोग कहते हैं कि हर एक कर्म को करना गलती करना है। इसलिए हर कर्म को छोड़ देना चाहिए। किन्तु ज्ञानी इस तरह कहते हैं कि यज्ञ, दान, तप जैसे कर्म कभी नहीं छोड़ना चाहिए।

भगवद गीता - श्लोक 18.4 View

भारत में सबसे श्रेष्ठ (अर्जुन)! अब त्याग के बारे में मेरा (ईश्वर का) निर्णय सुनों। हे मनुष्यों में सिंह (अर्जुन), नि:संदेह तीन प्रकार के त्याग मेरे द्वारा बताए गए हैं।

भगवद गीता - श्लोक 18.5 View

यज्ञ, तप, दान जैसे कर्मों को कभी भी छोड़ना नहीं चाहिए। क्योंकि निःसंदेह यह कर्म अनिवार्य कर्तव्य है। यज्ञ, तप, दान, नि:संदेह विचारशील व्यक्तियों को पवित्र करने वाले हैं।

भगवद गीता - श्लोक 18.6 View

किन्तु हे पार्थ (अर्जुन)! (यज्ञ, तप, दान जैसे) कर्म के साथ संगम (शिर्क को) और इन कर्मों के फल को भी छोड़ देना चाहिए। अर्थात नि:स्वार्थ कर्म करना चाहिए। यज्ञ, तप, दान को करना और संगम को छोड़ना अनिवार्य कर्तव्य समझना चाहिए। इस तरह मेरा आदेश है और सबसे उत्तम निर्णय है।

भगवद गीता - श्लोक 18.7 View

सत्कर्म ( यज्ञ, दान, तप और संगम को छोड़ना) जिसे ईश्वर ने अनिवार्य किया है। (वह) छोड़ देने के योग्य नहीं है। यदि कोई भ्रम के कारण इन्हें छोड़ देता है, तो वह नि:संदेह अज्ञानी तमो वाला कहा जाएगा। गुण

भगवद गीता - श्लोक 18.8 View

निःसंदेह जो कर्म शारीरिक असुविधा या पीड़ा इत्यादि के भय से छोड़ दिया जाए वह त्याग रजो गुण के कारण समझा जाएगा। इस प्रकार के त्याग का फल भी नहीं मिलता है। (यदि किसी का मन शानदार भोजन खाने का करे और मोटापे और बीमारी के भय से वह इसे त्याग दे और साधारण जीवन शैली अपनाए तो यह उसका त्याग नहीं होगा।)

भगवद गीता - श्लोक 18.9 View

हे अर्जुन! जो कुछ कर्म किए जाते हैं इस तरह कि वह धार्मिक नियम के अनुसार हो, कर्तव्य समझ के किए जाएं, संगम (शिर्क) और फल की आशा को छोड़कर किए जाते हैं। वह त्याग सात्विक गुणा से प्रेरित हैं, ऐसा मेरा निर्णय है।

भगवद गीता - श्लोक 18.10 View

सत्कर्म को करते समय न नफरत करो कठिन काम से, और न इच्छा करो सरल काम की। जो त्यागी व्यक्ति सत्कर्म करने में लगा हुआ रहता है, वह बुद्धिमान है। इसमें कोई संदेह नहीं।

भगवद गीता - श्लोक 18.11 View

नि:संदेह, या सम्भव नहीं है मनुष्य के लिए कि कर्म को पूरी तरह छोड़ दे। फिर भी वह जो अपने कर्म के फल के मिलने की इच्छा को छोड़ देगा (अर्थात सदैव निःस्वार्थ काम करें) वह नि:संदेह त्यागी कहा जाएगा।

भगवद गीता - श्लोक 18.12 View

जो लोग निःस्वार्थ कर्म नहीं करते, उनके लिए मृत्यु के बाद तीन प्रकार के फल हैं। वह फल जो नरक की ओर ले जाए, वह फल जो स्वर्ग की तरफ ले जाए, और मिला-जुला फल । किन्तु वह लोग जो निस्वार्थ कर्म करते हैं उनके लिए कभी भी तीन प्रकार के फल नहीं हैं। (केवल एक प्रकार का फल है और वह है स्वर्ग)

भगवद गीता - श्लोक 18.13 View

अर्जुन को अपने युद्ध करने के कर्म पर संदेह था कि वह पुण्य है या पाप, तो ईश्वर ने इन श्लोकों में कोई कर्म पुण्य या पाप है। इसके निर्णय करने का मापदंड बताया है। हे महाबाहो (अर्जुन)! सारे कर्म के (perfect) सही होने के लिए पांच कारण बताए गए हैं। वेदों में कर्म को प्रोत्साहित करने वाले कारण बताए गए हैं और उन कर्मों के अंत परिणाम का मैं तुमसे वर्णन करता हूँ। इन सबके बारे में मुझसे सुनो।

भगवद गीता - श्लोक 18.14 View

स्थान, और कर्म करने वाला व्यक्ति, और विभिन्न प्रकार के कारण (स्थिती / Situation ) और विभिन्न प्रकार के प्रयास और ईश्वर की इच्छा (आज्ञा)। नि:संदेह, यह पांच (कर्म के सही होने के कारण हैं)

भगवद गीता - श्लोक 18.15 View

मनुष्य जो कुछ भी शरीर से, जुबान से, या बुद्धि से कर्म करता है, वह (धार्मिक) नियम के अनुसार है या उसके विपरीत है, उनके सही या गलत होने के यही पाँच कारण हैं।

भगवद गीता - श्लोक 18.16 View

किन्तु, वह जो कम बुद्धिमान है, (वह) केवल अपने आपको हर चीज का करने वाला देखता है, इन पांच कारणों के बावजूद। तो वह व्यक्ति मूर्ख हैं, और कुछ नहीं देखता समझता।

भगवद गीता - श्लोक 18.17 View

जिसके स्वभाव में अहंकार नहीं है, जिसकी बुद्धि संसार में उन्नति करने में लगी हुई नहीं है। इस धरती पर यदि वह हत्या भी करे तो न उसने हत्या की ऐसा माना जाएगा, और न उसके कर्मों की ईश्वर के पास पकड़ होगी।

भगवद गीता - श्लोक 18.18 View

दिव्य ज्ञान, अन्य लोक जिसका ज्ञान होना चाहिए, ईश्वर जो सब कुछ जानता है। यह तीन कर्म के लिए प्रेरित करने वाले हैं। कर्म की इच्छा, कर्म और कर्म को करने वाला यह तीन कर्म के तत्त्व हैं।

भगवद गीता - श्लोक 18.19 View

ज्ञान, कर्म, और कर्म को करने वाले मनुष्य भी तीन प्रकार के हैं। नि:संदेह जो तीन गुणों के अनुसार पहचाने जाते हैं। गुणों का जिस तरह वेदों में वर्णन हुआ है, वह भी सुनो।

भगवद गीता - श्लोक 18.20 View

वह ज्ञान जिसके द्वारा मनुष्य देखता है कि सम्पुर्ण प्राणी एक अविनाशी ईश्वर द्वारा निर्माण किए गए हैं। और वह ईश्वर विभिन्न प्रकार के प्राणियों को निर्माण करने और पालने के लिए बटा हुआ नहीं है, तो समझ लो कि वह ज्ञान सात्विक गुण से प्रेरित है।

भगवद गीता - श्लोक 18.21 View

परंतु वह ज्ञान जिसके द्वारा विभिन्न प्रकार के सारे प्राणी, विभिन्न प्रकार के अलग अलग (ईश्वरों द्वारा) निर्माण किए गए हैं ऐसा समझा हैं गुण जाता है। उस ज्ञान को रजो से प्रेरित समझो।

भगवद गीता - श्लोक 18.22 View

किन्तु ईश्वर कह रहा है कि, जिस ज्ञान द्वारा मनुष्य किसी एक काम में पूरी तरह से लग जाए, और वह किसी उद्देश के बिना हो, और वह वास्तविकता के आधार पर न हो, और वह मामूली या बहुत छोटा सा काम हो । (तो) वह (ज्ञान) तमो गुण से प्रेरित कहा जाएगा।

भगवद गीता - श्लोक 18.23 View

जो कर्म धार्मिक नियमों के अनुसार किए जाते हैं। संगम (शिर्क) से मुक्त होकर, क्रोध और द्वेष के बिना, नि:स्वार्थ किए जाते हैं, वह सात्विक गुण से प्रेरित कहे जाएंगे।

भगवद गीता - श्लोक 18.24 View

किन्तु जो कर्म फल की अपेक्षा से, अहंकार के साथ किया जाए, या बार बार किया जाए, बहुत अधिक कष्ट के साथ किया जाए। वह (कर्म) रजो गुण से प्रेरित कहा जाएगा।

भगवद गीता - श्लोक 18.25 View

(यत्) जो (कर्म) कर्म (अनुबन्धम्) बिना धार्मिक नियम के (क्षयम्) विनाश (हिंसाम्) (और) हिंसा (के लिए) (पौरुषम्) अपनी क्षमता (च) और (अनवेक्ष्य) परिणाम को नजरअंदाज करके (मोहात्) किसी भ्रम में आकर (आरभ्यते) आरंभ किया जाए (तत्) उस (कर्म को) (तामसम्) तमो गुण से प्रेरित (उच्यते) कहा जाएगा।

भगवद गीता - श्लोक 18.26 View

संगम (शिर्क) से मुक्त, अहंकार से मुक्त, दृढ संकल्प वाला, उत्साह वाला, सुख शांती और कठिन समय में एक जैसा रहने की क्षमता वाला, ऐसा कर्म करने वाला व्यक्ति सात्विक गुण वाला कहा जाएगा।

भगवद गीता - श्लोक 18.27 View

कर्म करने वाला व्यक्ति (जो) क्रोध करने वाला है, लालची स्वभाव का है, अपने सत्कर्मों के फल की उम्मीद करता है, हिंसक स्वभाव वाला है, स्वच्छ नहीं रहता, अच्छे समय और कठिन समय का ( उसपर) प्रभाव होता है। (ऐसा व्यक्ति) रजो गुण (के स्वभाव वाला) कहा जाएगा।

भगवद गीता - श्लोक 18.28 View

कर्म करने वाला व्यक्ति जो ईश्वर की प्रार्थना में नहीं लगा रहता, भौतिकवादी (Materialistic) है, जिद्दी है, छल कपट स्वभाव का है, दूसरों का अपमान करने वाला है, आलसी है, दुःखी रहने वाला है, और टालमटोल और विलंब करने वाला है, (ऐसा व्यक्ति) तमो गुण के स्वभाव वाला कहा जाएगा।

भगवद गीता - श्लोक 18.29 View

हे अर्जुन गुणों के अनुसार नि:संदेह बुद्धि (सोच समझ ) ( Intelligence), और दृढ निश्चय (Determination) (भी) तीन प्रकार के हैं। इनके अंतर को अलग से (और) विस्तार से सुनो (जो मैं तुमसे) कह रहा हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 18.30 View

हे अर्जुन, जो बुद्धि जानती है कि आचरण और कर्मों की प्रवृत्ति उन्नति क्या है? और गिरावट क्या है। सत्कर्म क्या है? और वह कर्म क्या है जो नहीं करना चाहिए। किससे और किन बातों से डरना चाहिए। किससे और किन बातों से नहीं डरना चाहिए। ईश्वर के सामने प्रलय के दिन कौन से कर्म निरीक्षण के समय बांध देंगे और कौन से कर्म के आधार पर ईश्वर क्षमा करेगा मुक्ति देगा। ऐसी वह बुद्धि सात्विक गुण से प्रेरित कही जाएगी।

भगवद गीता - श्लोक 18.31 View

बुद्धि जो ठीक तरह से नहीं जानता धर्म और अधर्म (को), और कर्तव्य और अकर्तव्य को, वह (बुद्धि) रजो गुण से प्रेरित कही जाएगी।

भगवद गीता - श्लोक 18.32 View

हे पार्थ (अर्जुन), जो बुद्धि अधर्म को धर्म समझे, और सम्पूर्ण चीज़ों को उसके उद्देश्य के विपरीत या उल्टा मानते हैं या समझते हैं या इस्तेमाल करते हैं वह बुद्धि तमो गुण से प्रेरित मानी जाएगी।

भगवद गीता - श्लोक 18.33 View

हे पार्थ (अर्जुन)! दृढ निश्चय जो दृढ़ता से वश में रखे मन को अपने प्राण की सुरक्षा के लिए,अपनी इच्छाओं के अनुसार आनंद का अनुभव देने वाले कर्म से बचने के लिए, ईश्वर से जोड़ने वाली प्रार्थना में संयम के साथ लगे रहने के लिए, वह दृढ निश्चय सात्विक गुण से प्रेरित कहा जाएगा।

भगवद गीता - श्लोक 18.34 View

हे अर्जुन यदि (कोई ) दृढ़ संकल्प अपनाता है धार्मिक काम को करने का, अपने मन की इच्छा को पूरा करने के काम को करने का, या संसारी काम को करने का। किन्तु फल की आशा के साथ, तो उसका वह दृढ़ संकल्प रजो गुण से प्रेरित माना जाएगा।

भगवद गीता - श्लोक 18.35 View

हे पार्थ (अर्जुन), मूर्ख लोग, जिस दृढ़ संकल्प के साथ से बेबुनियाद कल्पना करना, भय करना, शोक करना, परेशान होना, और भ्रम में रहना नहीं छोडते । निःसंदेह वह दृढ़ संकल्प तमो गुण से प्रेरित कहा जाएगा।

भगवद गीता - श्लोक 18.36 View

हे भरत श्रेष्ठ (अर्जुन)! अब मुझसे तीन प्रकार सुख के बारे में सुनो। सबसे पहला यह वेदों के का अध्ययन और उनमें सोच विचार है, जिसके कारण प्रसन्नता मिलती है, और दुखों का अंत होता है।

भगवद गीता - श्लोक 18.37 View

यह वेदों का अध्ययन वह सुख है जो आरंभ में है विष की तरह लगता है। किन्तु परिणाम में अमृत के बराबर है। (अच्छी तरह जान लो कि) ईश्वर की याद से मन में सुख शान्ति जन्म लेती है। यह वह सुख शान्ति है जो सात्विक गुण से कहा गया है।

भगवद गीता - श्लोक 18.38 View

याद रखो, जो सुख मन को आनंद देने वाले वस्तुओं के उपयोग से मिलता है। वह आरंभ में अमृत के समान महसूस होता है। किन्तु परिणाम के विष की तरह होता है। ऐसा सुख रजो गुण के कारण है।

भगवद गीता - श्लोक 18.39 View

जो सुख मनुष्य को आरंभ से भ्रम में फसा दे। और नींद (गफलत), आलस और लापरवाही उत्पन्न करे, वह तमो गुण से कहा जाएगा।

भगवद गीता - श्लोक 18.40 View

वह (मनुष्य) जो पृथ्वी पर हैं, और आध्यात्मिक प्राणी, जिन्न, यक्ष, इत्यादी, और बार बार सत्कर्म करने वाले ऋषि मुनि (वली), (जिस किसी को ईश्वर ने अपनी) प्राकृतिक शक्ति से जन्म दिया है, वह तीन प्रकार के गुणों के प्रभाव से मुक्त नहीं हैं।

भगवद गीता - श्लोक 18.41 View

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, हे अर्जुन, यह काम बांटे गए हैं; स्वभाव, प्रभाव, गुणों के आधार पर। (न कि जन्म के आधार पर ) ।

भगवद गीता - श्लोक 18.42 View

मन का शान्त होना, इन्द्रियों को वश में करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर भीतर से स्वच्छ रहना, दूसरों को क्षमा करना, सरल जीवन व्यतीत करना, वेद और दिव्य ग्रंथों का ज्ञान होना, (Wisdom) बुद्धिमत्ता का होना, (अन्य लोक) मृत्यु के बाद के जीवन में विश्वास रखना, (belief in a hereafter) नि:संदेह यह ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।

भगवद गीता - श्लोक 18.43 View

शूरवीरता, तेज, दृढ संकल्प, प्रजा के संचालन में चतुरता (Good administration ability), और युद्ध में पीठ न दिखाना, दान करना, शासन करने का स्वभाव, नि:संदेह क्षत्रिय के (यह) स्वभाविक कर्म हैं।

भगवद गीता - श्लोक 18.44 View

खेती-बाडी करना, गाय की रक्षा करना, और व्यापार करना वैश्य के कर्म हैं। और यह गुण उनमें जन्म से होते हैं। और इसी तरह सेवा से संबंधित कर्म र के हैं। यह स्वाभाविक गुण भी शुद्र (शुद्र में) जन्म से होते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 18.45 View

अपने-अपने स्वाभाविक गुणों के अनुसार काम में लगे हुए मनुष्य ही सफलता प्राप्त करते हैं। अपने स्वाभाविक गुणों के अनुसार काम करने वाले जिस प्रकार सफलता प्राप्त करते हैं वह मुझसे सुनो।

भगवद गीता - श्लोक 18.46 View

वह ईश्वर जिसने सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न किया, जिसने इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड को स्थापित किया, उस ईश्वर की प्रार्थना करते हुए अपने स्वाभाविक गुणों के अनुसार काम करने से ही के मनुष्य सफलता प्राप्त करता है।

भगवद गीता - श्लोक 18.47 View

दूसरों के स्वाभाविक गुणों वाले कर्तव्यों कर्मों को अच्छी तरह करने से अधिक उत्तम है कि कम स्वाभाविक गुण होते हुए भी मनुष्य अपने स्वाभाविक गुणों के अनुसार काम करे। क्योंकि अपने स्वाभाविक गुणों के अनुसार काम करने से असफलता नहीं मिलती।

भगवद गीता - श्लोक 18.48 View

नि:संदेह सारे प्रयास, काम में कमी होती है। सारे काम दोषी (Imperfect) होते हैं और यह दोष का होना ऐसा स्वाभाविक है जैसे अग्नि का धुएँ से पुर होना स्वाभाविक है। निःसंदेह हे अर्जुन सारे स्वाभाविक गुण दोष के साथ (ही मनुष्य के साथ) निर्माण किया गया है। इस कारण अपनी स्वाभाविक गुणों के अनुसार कर्मों को कभी त्यागना नहीं चाहिए।

भगवद गीता - श्लोक 18.49 View

जिसने सबसे अपने बुद्धि को ( expectation) को हटा लिया है। (जिसने) अपने आपको जीत लिया है। जिसने अपनी इच्छाओं को पूरा करना छोड़ दिया है। जिसने कर्मफल पाने की इच्छा को पूरी तरह छोड़ दिया है। वह महान ईश्वर को पा लेता है।

भगवद गीता - श्लोक 18.50 View

दिव्य ज्ञान जिसके द्वारा मनुष्य ईश्वर में श्रद्धा प्राप्त करता है, और ईश्वर की याद में (Perfection) पूर्णता प्राप्त करता है, उस ज्ञान को संक्षिप्त में मुझसे समझने का प्रयास करो।

भगवद गीता - श्लोक 18.51 View

व्युदस्य (निम्नलिखित कर्म करने से मनुष्य ईश्वर की कृपादृष्टि प्राप्त करता है) अपने मन को संगम (शिर्क) से शुद्ध रखो और ईश्वर की प्रार्थना में लगे रहो। दृढ़ता से अपने आप को धार्मिक नियमों के पालन में स्थित रखो। मन को आनंद देने वाले वस्तु और काम और ज्यादा बातचीत छोड़ दो। क्रोध और किसी से घृणा करने को एक तरफ रख दो अर्थात छोड दो ) ।

भगवद गीता - श्लोक 18.52 View

शांत स्थान पर रहो। कम भोजन करो। वाणी, शरीर, और मन को वश में रखो। ध्यान द्वारा सदैव अपने मन को ईश्वर के सम्पर्क में रखो। ईश्वर की शरण लो। निष्पक्ष रहो (आपके स्वभाव में न्याय हो) ।

भगवद गीता - श्लोक 18.53 View

जो मनुष्य अहंकार, हिंसा, घमंड, अपनी इच्छाओं को पूरी करना, क्रोध स्वार्थपरता, छोड़ देता है। धन-सम्पत्ती के प्रेम को छोड़ देता है, और शांति प्रेमी है, (ऐसा मनुष्य) ईश्वर के विवेक को पहचानने के / realization) योग्य है।

भगवद गीता - श्लोक 18.54 View

ईश्वर की प्रार्थना में लगे मनुष्य शांत मन के होते है। न तो वह चिंतित होते है, न तो वह किसी चीज़ की आशा करते हैं। वह सब मनुष्यों से एक जैसा व्यवहार करते हैं। वह केवल मेरी प्रार्थना करते हैं। और स्वर्ग के सबसे श्रेष्ठ स्थान को पा लेते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 18.55 View

वह (भक्त) मेरी सच्चाई को अर्थात मैं जैसा हूँ और (या) जो हूँ मेरी प्रार्थना से ही जान लेता है। और फिर मेरी सच्चाई को जानने वाला वह (भक्त) (मेरे और उसके) बीच में और किसी को लाए बिना (मुझ तक) पहुंचता है।

भगवद गीता - श्लोक 18.56 View

किन्तु सच तो यह है कि सभी सत्कर्मों को मेरे सहारे करने वाला, मेरी कृपादृष्टि से ही स्वर्ग का सदैव स्थित रहने वाला अविनाशी स्थान पा सकता है।

भगवद गीता - श्लोक 18.57 View

पूरी चेतना के साथ अपने सब कर्म केवल मुझे समर्पित करो। मुझे अपने जीवन का लक्ष्य बनाओ। अपनी बुद्धि को मुझसे जोड़े रखो। मेरी शरण लो, मुझमें सदैव लीन रहने वाले बन जाओ।

भगवद गीता - श्लोक 18.58 View

सदैव मुझमें लीन रहने वाले बनोगे तो सभी रुकावट मेरी कृपा से पार कर जाओगे। किन्तु • अगर तुम मेरे आदेश को न सुनते हुए अहंकार में डुबे रहोगे तो बर्बाद हो जाओगे।

भगवद गीता - श्लोक 18.59 View

अहंकार के सहारे (के कारण) यदि तुम इस तरह सोच रहे हो कि मैं युद्ध नहीं करूंगा तो तुम्हारी यह प्रतिज्ञा गलत है। ईश्वर का रचा हुआ भाग्य तुम्हें इस युद्ध में झोंक देगा।

भगवद गीता - श्लोक 18.60 View

हे कुन्ती पुत्र (अर्जुन)! भ्रम के कारण जिन अनिवार्य कर्तव्य को करने के लिए तुम तैयार नहीं हो। ईश्वर द्वारा रचे गए स्वभाव से मजबूर होकर, नि:संदेह (तुम) स्वत: वह कर्म न चाहते हुए भी करने लगोगे ।

भगवद गीता - श्लोक 18.61 View

हे अर्जुन! सारे मनुष्यों के हृदय में ईश्वर स्थित है (मौजुद है)। और वह सभी मनुष्यों की परीक्षा लेने के लिए उनको समय के यन्त्र पर सवार करके घुमता रहता है।

भगवद गीता - श्लोक 18.62 View

हे अर्जुन उस (ईश्वर की) शरण में हर प्रकार से आ जाओ। उस ईश्वर की कृपा से तुम्हें सर्वश्रेष्ठ शान्ति वाला स्थान स्वर्ग हमेशा के लिए प्राप्त होगा।

भगवद गीता - श्लोक 18.63 View

इस तरह मेरे द्वारा तुम्हें अत्यन्त गुप्त ज्ञान कहा गया। इस ज्ञान पर अच्छी तरह से विचार करके जैसा चाहते हो वैसा करो ।

भगवद गीता - श्लोक 18.64 View

तुम मुझ पर दृढ़ता से श्रद्धा रखने वाले मित्र हो, इसलिए तुम्हारे हित के लिए मेरे द्वारा उन गुप्त आदेश में से उन सबसे श्रेष्ठ आदेश को दोबारा कह रहा हूँ (इन्हें ध्यान से सुनो।

भगवद गीता - श्लोक 18.65 View

सदैव मेरे बारे में सोचते रहो। केवल मेरी भक्ति करने वाले बनो। हर सत्कर्म को केवल मेरे लिए करो। मुझे ही नमस्कार करो। निःसंदेह इन सारे कामों को करने से तुम मुझे पा लोगे यह मेरा तुम से सच्चा वचन है। क्योंकि तुम) मुझे प्रिय हो ।

भगवद गीता - श्लोक 18.66 View

सभी धर्मों को छोड़ कर मुझ एक ईश्वर की शरण में आ जाओ। चिंता ना करो, मैं तुम्हारे सारे पापों को क्षमा कर दूंगा।

भगवद गीता - श्लोक 18.67 View

जो व्यक्ति अपने आपको वश में नहीं रखता, जो प्रार्थना नहीं करता, और जो ईश्वर का आदेश सुनने की रुचि नहीं रखता, ऐसे लोगों को तुम्हारे द्वारा यह

भगवद गीता - श्लोक 18.68 View

सच तो यह है कि मेरी भक्ति करते हुए, जो प्रचारक मेरे भक्तों को इस सबसे श्रेष्ठ व दिव्य छिपे हुए ज्ञान को समझाता है, नि:सन्देह वह मेरे सबसे श्रेष्ठ व दिव्य (स्वर्ग के) धाम को प्राप्त करता है।

भगवद गीता - श्लोक 18.69 View

इस संसार के मनुष्यों में, इस धर्म के प्रचारक की तुलना में कोई और नहीं है, जिसमे मैं प्यार करता हूँ और भविष्य में भी इसकी तुलना में दूसरा कोई मुझे इससे अधिक प्यारा नहीं होगा।

भगवद गीता - श्लोक 18.70 View

जो मनुष्य इस (ईश्वर के आदेशों व नियमों पर आधारित) धर्म के बारे में किये गए संवाद में सोच-विचार करेगा और धीरे-धीरे इसके टुकड़े टुकड़े को समझेगा, वह ज्ञान के द्वारा ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करेगा और मैं इसकी सारी आशाओं को पूरी करुँगा, इस तरह का यह मेरा निर्णय है।

भगवद गीता - श्लोक 18.71 View

निःसन्देह जो मनुष्य एक ईश्वर पर श्रद्धा रखते हुए और ईश्वर से इर्ष्या न रखते हुए, इस ज्ञान को सुनेगा, वह संसार में भय व शोक से मुक्त हो जाएगा और मरने के बाद स्वर्ग में भलाई वाले कर्म करने वालों के पवित्र और अच्छे धाम (स्वर्ग) को भी पाएगा।

भगवद गीता - श्लोक 18.72 View

हे पार्थ (अर्जुन)! क्या तुम्हारे मन को एक ईश्वर में एकाग्र करके, इस ज्ञान को तुमने सुना? हे धनन्जय (अर्जुन)! क्या तुम्हारी अज्ञान पर आधारित उलझन दूर हो गई ?

भगवद गीता - श्लोक 18.73 View

अर्जुन ने कहा, हे अच्युत (कृष्ण) ! मेरी सारी हे उलझनें दूर हो गई, और तुम्हारी कृपा से मैंने ईश्वर के उपदेशों को याद रखने की शक्ति प्राप्त कर ली है। अब मैं एक ईश्वर की श्रद्धा पर मजबूती से स्थित हो गया हूँ। मेरी सारी शंकाऐं दूर हो गई हैं। हे कृष्ण, अब मैं तुम्हारे द्वारा कहे हुए ईश्वर के आदेशों का पूर्णतया पालन करूँगा।

भगवद गीता - श्लोक 18.74 View

संजय ने कहा, "और इस तरह मैंने ईश्वर, कृष्ण और अर्जुन की अद्भुत और रोंगटे खड़े कर देने वाले इस संवाद या वार्ता को सुना।"

भगवद गीता - श्लोक 18.75 View

व्यास की कृपा से, भक्ति की इस सबसे श्रेष्ठ रहस्य की बातों को योगेश्वर कृष्ण को कहते हुए मैंने (साक्षात्) बिल्कुल साफ तौर पर स्वंय सुना है ।

भगवद गीता - श्लोक 18.76 View

हे राजा धृतराष्ट्र! कृष्ण और अर्जुन के इस अदभूत और पवित्र संवाद को याद करता हूँ तो बार बार याद करके मैं प्रसन्न होता हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 18.77 View

और हे मेरे महान राजा (धृतराष्ट्र), ईश्वर के द्वारा (दिखाए जाने वाले) उस अत्यधिक अद्भुत और आश्चर्यचकित कर देने वाले दिव्य वस्तुओं को याद करता हूँ, तो बार बार मैं अत्यधिक प्रसन्न होता हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 18.78 View

जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं, और जहाँ धनुष रखने वाले अर्जुन हैं, वहाँ पूर्णतया सुख और शान्ति, विजय, अच्छा भाग्य, सही नीति और धैर्य होगी, ऐसा मेरा मानना है।