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अध्याय 3 - कर्मयोग


INTRODUCTION :


● अध्याय नं. २ में ईश्वर ने कहा था, कि मनुष्य के शरीर में जो रुह है वह अमर है। इस कारण मृत्यु से मनुष्य का अन्त नहीं होता।

उसके बाद ईश्वर ने कहा कि मनुष्य अपनी इच्छा के अनुसार जीवन व्यतीत करने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं। उसके जो अनिवार्य कर्तव्य हैं। वह उसे करने ही हैं, अर्थात पूर्ण करने हैं।

उसके बाद ईश्वर ने कहा कि अपने अनिवार्य कर्तव्य को भली-भांति पूरा करने के लिए ईश्वर में श्रद्धा आवश्यक है।
अन्त में, ईश्वर ने कहा कि अपनी इच्छाओं के अनुसार जीवन व्यतीत करने की अभिलाषा ही कर्तव्य के पालन के मार्ग की सबसे बड़ी रुकावट है।

अध्याय नं. २ में ईश्वर में श्रद्धा का विस्तार से वर्णन किया जा चुका है। इस अध्याय में अनिवार्य कर्मों का विस्तार से वर्णन है।

SUMMARY OF SHLOKS :


● श्लोक नं. ३.१ में अर्जुन श्री कृष्ण जी से प्रश्न करते हैं, जब ईश्वर में श्रद्धा, धर्म में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है, तो श्रद्धा तो मुझ में है। अब आप मुझे इस युद्ध करने के लिए क्यों कह रहे हो ?

● श्लोक नं. ३.३ में ईश्वर ने कहा की, धर्म में श्रद्धा और अपने अनिवार्य कर्तव्य का पालन
करना दोनों महत्त्वपूर्ण हैं |

● श्लोक नं. ३.४ में ईश्वर ने कहा कि संसार से सन्यास लेने से कर्तव्य पूरे नहीं होते।
(कर्तव्य को पूरा करना अधिक महत्त्वपूर्ण है )

● श्लोक नं. ३.५ ३.८ में ईश्वर ने कहा कि तीन प्रकार के गुण मनुष्य के साथ लगे हैं (सत्व गुण, रजो गुण, तमो गुण) । किन्तु जो मनुष्य ईश्वर के आदेश अनुसार कर्म करता है, वही श्रेष्ठ है।

● श्लोक नं. ३.९ में ईश्वर ने कहा कि पवित्र वेदों को पढ़ो, जिसमें अनिवार्य कर्तव्य का वर्णन है। ईश्वर की प्रार्थना करो, और उसकी शरण चाहो। इसके बिना अनिवार्य कर्तव्य का पूरा करना कठिन है।

● श्लोक नं. ३.१० में है कि ईश्वर ने पहले मनुष्य को निर्माण करने के बाद जब धरती पर भेजा, तो उन्हें भी अपना अनिवार्य कर्मों को पूरा करने के लिए कहा, जो उन्होंने किया और संसार में समृद्ध रहे।

● श्लोक नं. ३.११ ३.१२ में है कि जब मनुष्य अपने अनिवार्य कर्मों को पूरा करता है, तो देवता (फरिश्ते) उन्हें सभी प्रकार की जीवन सामग्री देते हैं। यह सामग्री भी मनुष्य को बांट कर खाना चाहिए।

● श्लोक नं. ३.१३-३.१५ में लिखा है कि जब मनुष्य अपने कर्म अच्छी तरह करता है तो ईश्वर उसे समृद्ध बना देता है।

● श्लोक नं.३.१७-३.१८ में लिखा है की ईश्वर के स्मरण (याद) से ही मन को शान्ती मिलती है।

● श्लोक नं. ३.१९-३.२० में लिखा है कि जनकल्याण को मन में रखते हुए वेदों के उपदेशों का पालन करना चाहिए।

● श्लोक नं. ३.२२ ३.२४, में ईश्वर ने कहा की मुझको काम करने की आवश्यकता नहीं है। किन्तु निःस्वार्थ में कर्मों में लगा हूँ। इसी प्रकार मनुष्य को भी निःस्वार्थ अपने कर्म करने में लगे रहना चाहिए।

● श्लोक नं. ३.२५-३.३२ में लिखा है कि कैसे अज्ञानी मूर्ख सत्कर्म करते हैं। और कैसे उन्हें सही कर्म करने के लिए मार्गदर्शन करना चाहिए?

● श्लोक नं. ३.३४ में अनिवार्य कर्तव्य को पूरा न कर पाने का कारण बताया गया है। और वह कारण है, मनुष्य का अपनी इच्छा अनुसार अपना जीवन व्यतीत करने की चाह ।

● श्लोक नं. ३.३५ में लिखा है कि यदी किसी और व्यक्ति का जीवन आपको बहुत पसन्द हो तब भी अपने कर्तव्य के जीवन व्यतीत करना चाहिए। अनुसार ही

● श्लोक नं. ३.३७ से ३.४२ में ईश्वर ने कहा कि काम भावना जो कि अनिवार्य कर्मों को पूरा न करने का मुख्य कारण है, यह काम भावना इतनी प्रबल है कि मनुष्य के मन और बुद्धि को ढाँप लेती है।

● श्लोक नं. ३.४३ में ईश्वर ने कहा कि ईश्वर में दृढ़ श्रद्धा से ही काम और अन्य इच्छाओं को वश में किया जा सकता है जो अनिवार्य कर्मों को पूरा करने के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।

SHLOKS :

भगवद गीता - श्लोक 3.1 View

अर्जुन ने कहा, हे कृष्ण! आपके आदेश अनुसार यदि ईश्वर में श्रद्धा सत्कर्म से अधिक महत्त्वपूर्ण है, तो क्यों ( तुम) मुझे (इस) घोर कर्म (अर्थात युद्ध के लिए) प्रेरित कर रहे हो।

भगवद गीता - श्लोक 3.2 View

एक से अधिक अर्थ के वाक्यों से मेरी बुद्धि उलझ गई है। इसलिए (कृपया) निश्चय करके एक अर्थ वाले वाक्य या उपदेश कहो, जिससे मैं सबसे श्रेष्ठ ज्ञान पा सकूँ ।

भगवद गीता - श्लोक 3.3 View

अनघ । ईश्वर ने कहा, हे अर्जुन! इस संसार में धर्म और ईश्वर के प्रति जो आदरपूर्ण भाव (या श्रद्धा) है, उसके दो भाग हैं, जो मेरे द्वारा पहले ही (श्लोक नं. २:३९ में) कहा जा चुका है। उनमें से एक है ज्ञान योग, अर्थात वैदिक ज्ञान के अनुसार ईश्वर के में श्रद्धा रखना, और ईश्वर की प्रार्थना करना । (जिसका ज्ञान) वेदों के ज्ञानियों द्वारा मिलता है। (और उनमें से दूसरा है) कर्म योग, अर्थात धार्मिक अनिवार्य कर्म करना, (जिसका ज्ञान) कर्म योगियों से मिलता है।

भगवद गीता - श्लोक 3.4 View

न धार्मिक, अनिवार्य कर्मों को नकारने से मनुष्य को छुटकारा मिलता है। और न तो केवल सामाजिक जीवन से संन्यास लेने से; आध्यात्मिक साधना में ही सफलता मिलेगी। (अर्थात कर्म योग्य को करना ही होगा। )

भगवद गीता - श्लोक 3.5 View

कोई (भी मनुष्य) किसी भी अवस्था में एक क्षण में के लिए भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता है। क्योकि ईश्वर ने प्राकृतिक रूप से उसमें जो गुण उत्पन्न किये हैं उस से बाध्य होकर वह सब कर्म करता रहता है।

भगवद गीता - श्लोक 3.6 View

जो व्यक्ति अपने आनंद अनुभव करने वाले अंगो को वश में रखता है किन्तु मन में आनंद लेने वाले वस्तुओं (के बारे में) सोचता रहता है। ऐसा व्यक्ति मूर्ख है और उस व्यक्ति को ढोंगी/पाखंडी कहा जाएगा।

भगवद गीता - श्लोक 3.7 View

किंतु हे अर्जुन जो व्यक्ति मन से अपनी इच्छाओं को वश में रखता है। और आनंद लेने वाले कर्मों को करता है। बिना उसमें मगन (लीन) हुए। (और) ईश्वर के आदेश अनुसार करता है, तो वह (व्यक्ति) श्रेष्ठ है।

भगवद गीता - श्लोक 3.8 View

हे अर्जुन! तुम ईश्वर के आदेश अनुसार कर्मों को करो। निःसंदेह कर्मों का करना अच्छा है, कर्मों को न करने से तथा कर्म न करने से तुम्हारी जन्म से मृत्यु तक की जीवन की यात्रा भी सफल न होगी।

भगवद गीता - श्लोक 3.9 View

हे अर्जुन! (वेदों में) लिखे आदेश (को जानो)। उस ईश्वर के लिए संगम से मुक्त होकर कर्म करो। तुम्हारे कर्म ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए हो अन्यथा इस संसार (में) कर्मों से बंधे रहोगे। (अनिवार्य कर्तव्य पूरे नहीं होंगे)

भगवद गीता - श्लोक 3.10 View

सृष्टी के रचना के काल में (आदिकाल में) ईश्वर ने मनुष्य (की रचना) ईश्वर की प्रार्थना के लिए की। ( और मनुष्य को) कहा, "ईश्वर की प्रार्थना से तुम्हारी समृद्धि (उन्नती) बढ़ेगी, ईश्वर की प्रार्थना से तुम लोग को आवश्यक सामग्री प्राप्त होगी।”

भगवद गीता - श्लोक 3.11 View

(उस ईश्वर की प्रार्थना के आदेश) अनुसार वे देवता भी ईश्वर की प्रार्थना करते हैं। तुम (मनुष्य भी) देवताओं के समान (ईश्वर की)

भगवद गीता - श्लोक 3.12 View

ईश्वर की प्रार्थना करते रहने से देवता तुम्हें नि:संदेह जीवित रहने के लिए जो 'वस्तु' चाहिए (वह) देते रहेंगे। (किन्तु) उन देवताओं द्वारा दी हुई सामग्री को जो दूसरों को दिये बिना सेवा में लाएगा नि:संदेह वह चोर है।

भगवद गीता - श्लोक 3.13 View

संत, महापुरुष कर्तव्यपालन (के लिए और जीवित रहने के लिए) भोजन खाते है । (और) सर्व प्रकार के पापों से मुक्त रहते हैं। किन्तु जो (भोजन) बनाते हैं मात्र अपने आनंद के लिए, वह पापी लोग पाप करते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 3.14 View

सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर अन्न से उत्पन्न होते हैं ( जीवित रहते हैं)। अन्न की उत्पति वर्षा से होती है, वर्षा होती है ईश्वर की आज्ञा और कृपा से । (और ईश्वर की आज्ञा और कृपा मनुष्य के) कर्म (के अनुसार) होते है।

भगवद गीता - श्लोक 3.15 View

(यह सत्य तुम्हें) जानना चाहिए कि सत्कर्म वेदों से उत्पन्न होते हैं। निराकार ईश्वर (से) वेद अस्तित्व में आए हैं। इस कारण (तुम्हें जानना चाहिए की ईश्वर की कृपादृष्टी) हर स्थान पर उपस्थित रहने वाला ईश्वर और उसकी कृपा वहीं होती है जहाँ हमेशा कर्तव्य का पालन होता है, (या ईश्वर की प्रार्थना होती है, या वेदों में लिखे आदेश माने जाते है)।

भगवद गीता - श्लोक 3.16 View

इस प्रकार, हे अर्जुन, जो व्यक्ति इस संसार में वेदों के निश्चित किए हुए नियमों के अनुसार अपने जीवन के दिन रात को सुनिश्चित नहीं करता, उसका जीवन पापों से भर जाता है। (कारण के) वह इस उद्देश्य से जीवित रहता है कि अपने इन्द्रियो से आनंद लेने में डूबा रहे।

भगवद गीता - श्लोक 3.17 View

निःसंदेह वह जो ईश्वर की स्मरण (याद) में डूबा रहता, वह व्यक्ति ईश्वर कि तरफ से शान्ति पाता है। और (वह व्यक्ति) अपने अंदर शान्ति और सन्तुष्टी का अनुभव करता है और उसे (और अधिक शान्ति और सन्तुष्ट रहने के लिए और) कोई काम नहीं करने पड़ते।

भगवद गीता - श्लोक 3.18 View

संसार में (इस प्रकार के सभी संन्तुष्ट और शांत व्यक्तियों को) नि:संदेह, न अवश्यकता है कुछ (विशिष्ट) कर्म करने की, और न (कोई) ऐसी (अवश्यकता) है कि कुछ विशिष्ट कर्मों से बचा जाए। और ऐसे (सज्जन व्यक्ति को) न तो कोई अवश्यकता है संसार के सभी प्राणियों के शरण लेने की। (अर्थात ईश्वर की तरफ से मिली शांति के कारण वह अपने आप ही शांत और प्रसन्न रहता है।)

भगवद गीता - श्लोक 3.19 View

इसलिए निरन्तर निःस्वार्थ होकर सत्कर्म को अपना कर्तव्य समझ कर वेदों के आदेश अनुसार (करते रहो)। नि:संदेह नि:स्वार्थ कर्म करता हुआ व्यक्ती ही ईश्वर की कृपा को पाता है।

भगवद गीता - श्लोक 3.20 View

नि:संदेह, जनक और अनेक महापुरुषों ने भी सत्कर्मोंों को पूरी तरह से ईश्वर में दृढ श्रद्धा के साथ किया था । तुम्हें भी सत्कर्मों को जन कल्याण के उद्देश्य के साथ करना चाहिए।

भगवद गीता - श्लोक 3.21 View

समाज के श्रेष्ठ लोग (धनी, बुद्धिजीवी) जो आचरण करते हैं। समाज के दुसरे लोग भी वही (आचरण अपनाते हैं)। वह (समाज के श्रेष्ठ लोग) आचरण के; जो प्रमाण निर्धारित करते हैं। वही (आचरण के प्रमाण) सारे लोग भी अपनाते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 3.22 View

हे अर्जुन तीनों लोकों में मुझ पर कोई भी अनिवार्य कर्म नहीं है। न प्राप्त करने योग्य (वस्तु) मुझे अप्राप्त है। (अर्थात मेरे पास सब कुछ है।) फिर भी (मैं प्राणियों के सुरक्षा और पालन पोषण) के काम में लगा हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 3.23 View

हे अर्जुन! अगर मैं बह्मांड के प्रबंध (सुरक्षा का काम) सावधान होकर न करुँ तो निःसंदेह सब मनुष्य मेरे मार्ग पर चल पड़े। ( अर्थात ब्रह्मांड नष्ट हो जाए और सब मनुष्य मृत्यु पाकर मेरे पास आ जाए)

भगवद गीता - श्लोक 3.24 View

यदि मैं (ब्रह्मांड के प्रबंध का) कर्म न करूँ तो यह सब संसार नष्ट हो जाए। और (यह सब प्रबंध केवल प्रलय के दिन तक है। प्रलय के अवसर पर ) सर्व प्राणियों को (मैं) अनचाहे (वस्तू के प्रकार) नष्ट करने वाला हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 3.25 View

हे अर्जुन! जैसे अज्ञानी (कर्म फल की) अपेक्षा (के साथ) कर्म करते हैं। वैसे ही (विद्वान) ज्ञानी पुरुषों को निस्वार्थ होकर संसार के कल्याण के उद्देश से कर्म करने चाहिए।

भगवद गीता - श्लोक 3.26 View

ज्ञानी पुरुषों (को चाहिए की) अज्ञानी लोग जो कर्मों को केवल अच्छे फल की लालच में करते हैं। उनकी बुद्धी में भ्रम न उत्पन्न होने दें। वेदों के ज्ञान उनको बताए और उनके सब कर्म (वेदों के अनुसार हों इसके लिए) प्रेरित करें।

भगवद गीता - श्लोक 3.27 View

सारे कर्म (ईश्वर के बनाए हुए सत्व, रजो और तमो गुणों से और) ईश्वर के बनाए हुए भाग्य के कारण किये जाते हैं। (किन्तु) अहंकारी (और) मूर्ख लोग ऐसा मानते हैं कि यह सब (कर्म) मैं करता हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 3.28 View

हे महाबाहो (अर्जुन)! तत्वदर्शी पुरुष (ज्ञानी) कर्म (जो ईश्वर के बनाए हुए सात्विक, रजो और तमो) गुण ( से प्रेरित होकर किए जाते हैं), उनके अंतर को समझता है। (और तीनों) गुणों में सर्वश्रेष्ठ गुण (सात्वीक गुण) ही अपनाता है। इस तरह के दृष्टीकोण से वह (पाप कर्मों में) फंसता नहीं है ।

भगवद गीता - श्लोक 3.29 View

(ईश्वर ने) प्राकृतिक रुप से (मनुष्य को जो) गुण (बुद्धि, कौशल) दिये हैं। मूर्ख जन ( उसे अपनी क्षमता मानते हैं) और उन गुणों से उसके अच्छे फल (धन संपत्ती इत्यादि) कमाने के धुन में लगे रहते हैं। (और मानव कल्याण के कर्म नहीं करते )। ज्ञानी पुरुषों को चाहिए कि इन अज्ञानी और ना समझ लोगों को विचलित (गुमराह ) न होने दें।

भगवद गीता - श्लोक 3.30 View

(हे अर्जुन) विवेक बुद्धि के द्वारा (मुझ) ईश्वर को पहचानते हुए, अपने सभी कर्म (कर्तव्य) केवल मेरे (लिए करो)। मेरे अतिरिक्त किसी से अपेक्षा ना रखो। आनंद भोगने की इच्छा न रखो। वासना छोड़ दो। सुस्ती और कामचोरी को छोड़ कर सत्कर्मों को युद्ध रुप से करने वाले बन जाओ।

भगवद गीता - श्लोक 3.31 View

वह लोग जो हमेशा मेरे इन आदेशों को पूरी श्रद्धा के साथ मानते हैं, और गलत विचारों से मुक्त हैं। उनके अनिवार्य कर्तव्य भी ( पूरे हो जाते हैं) और वह (कर्म बंधन) से भी मुक्त हो जाते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 3.32 View

परन्तु जो मनुष्य मेरे आदेशों पर नहीं चलते हैं। और उनकी आलोचना करते है। उन लोगों को सम्पूर्ण ज्ञानों में अज्ञानी, पूरी तरह बर्बाद (और) अविवेकी (ईश्वर को न पहचानने वाला मनुष्य) जानो।

भगवद गीता - श्लोक 3.33 View

(एक) ज्ञानी पुरुष उसके अपने स्वभाव के अनुसार व्यवहार करता है। इसी प्रकार सर्व प्राणी अपने-अपने स्वभाव के अनुसार व्यवहार करते हैं। तो किस प्रकार प्राकृतिक स्वभाव के अनुसार किए गए कर्मों को रोका जा सकता है।

भगवद गीता - श्लोक 3.34 View

आनंद लेने की इच्छा का आनंद का अनुभव देने वाले वस्तुओं से मित्रता (या) नफरत (घृणा का) (सम्बंध) होता है। इन दोनों (भावनाओं के) वश में नहीं आना चाहीए। निसंदेह यही (भावनाएं) रास्ते की रुकावट है। (अर्थात प्रेम या घृणा की भावना से प्रेरीत होकर मनुष्य ईश्वर के आदेश के उलट कर्म करता है।)

भगवद गीता - श्लोक 3.35 View

(हे अर्जुन) अपने कर्तव्य को कम कुशलता से करना यह दुसरों के कर्तव्य को कुशलता से करने से अधीक श्रेष्ठ है। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मृत्यु पाना यही सबसे श्रेष्ठ है। (दुसरों के कर्तव्य करने में) (असफलता का ) ड़र है। (अर्थात जब ईश्वर ने अर्जुन को क्षत्रिय बनाया है तो अपना कर्तव्य करना (धर्म युद्ध करना ही) अर्जुन के लिए श्रेष्ठ है। अर्जुन का एक पंडीत की तरह व्यवहार करने से शायद अधर्म का नाश ना हो।

भगवद गीता - श्लोक 3.36 View

अर्जुन ने प्रश्न किया, हे कृष्ण! किसके द्वारा प्रेरित होकर मनुष्य यह पाप के कर्म करता है। जैसे बलपूर्वक ना चाहते हुए भी (किसी ने मनुष्य को) (पाप के कर्म पर) लगा दिया हो।

भगवद गीता - श्लोक 3.37 View

ईश्वर ने कहा अपनी इच्छा को पूरी करने की चाह ( काम भावना ही सब पापों का कारण है) (जब इच्छा पुरी नहीं होती है तो) क्रोध: ( उत्पन्न होता है) और यह (काम भावना) रजो गुण (अर्थात अपनी इच्छा को पूरी करने के लिए निरंतर प्रयास के गुण से) उत्पन्न होता है। इसी काम भावना को इस संसार में महान शत्रु, घोर पाप और बड़े विनाश का कारण जानो। (काम भावना को समझने के लिए नोट नं. N-८ का अध्ययन करें।)

भगवद गीता - श्लोक 3.38 View

जिस प्रकार आग धुएँ से, और दर्पण धूल से ढक जाती है। जिस प्रकार शिशु गर्भ में ढका रहता है। इसी प्रकार इस ( काम भावना के कारण) यह (मनुष्य का विवेक) ढक जाता है। (अर्थात काम भावना के कारण उसकी बुद्धि और ज्ञान ढक जाता है और वह पाप और पुण्य को समझ नहीं पाता है।)

भगवद गीता - श्लोक 3.39 View

हे कुन्ती पुत्र (अर्जुन)! इस (काम-भावना या इच्छा भक्ती से) ज्ञानि का ज्ञान भी ढक जाता है। काम भावना या इच्छा भक्ति के रूप में यह सदा की शत्रु है । और कभी तृप्त न होने वाली अग्नि के समान हमेशा जलती रहती है।

भगवद गीता - श्लोक 3.40 View

शरीर के आनंद लेने वाले अंग, मन, (और) बुद्धि इस (काम भावना का) रहने का स्थान कहा गया है। यह (काम-भावना) मनुष्य (के) ज्ञान (को) ढक कर ( मनुष्य को) (सत्य मार्ग से) भटका देती है।

भगवद गीता - श्लोक 3.41 View

इसलिए, हे भारतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! तुम सबसे पहले अपनी इच्छाओं को ( या कामः भावना को) वश में करो। इस ज्ञान विज्ञान (का) नाश करने वाली पापी (भावना को) नि:संदेह (तुम) बलपूर्वक मार डालो।

भगवद गीता - श्लोक 3.42 View

इन्द्रियों को (इच्छाओं को) श्रेष्ठ कहा जाता है। मन, इन्द्रियों से (इच्छाओं से) श्रेष्ठ है। किन्तु बुद्धि, मन से (भी) श्रेष्ठ (है)। परंतु वह (ईश्वर) इस बुद्धि से भी महान है।

भगवद गीता - श्लोक 3.43 View

इसलिए हे महाबाहो (अर्जुन)! इस सत्य को जानने के बाद कि ईश्वर बुद्धि से महान है। अपने मन और बुद्धि में ईश्वर की श्रद्धा को दृढ़ता से स्थित करो। और इस काम भावना के रुप में जो शक्तिशाली शत्रु है, इस को मार डालो।