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अध्याय 15 - पुरुषोत्तम योग


INTRODUCTION :


इस अध्याय में उच्च स्तर पर ईश्वर में श्रद्धा का
शुद्धिकरण है।

अध्याय नं. १४ में हमने अतीत गुण के बारे में जानकारी प्राप्त की थी। अर्थात अपने आपको मरा हुआ समझना। अब इस अध्याय में उसके आगे का ज्ञान है या सफलता के सूत्र हैं।

SUMMARY OF SHLOKS :


● श्लोक नं. १५.२ और १५.३ का अर्थ है की इस संसार को समझना कठिन है। इस संसार के मोह को ईश्वर की श्रद्धा के शस्त्र से काट दो ।

● श्लोक नं. १५.४ का अर्थ है कि मनुष्य को अन्य लोक की तलाश करनी चाहिए।

●श्लोक नं. १५.५ में उन गुणों का वर्णन है जिनसे मनुष्य को स्वर्ग प्राप्त होता है।

●श्लोक नं. १५.६ में स्वर्ग के वातावरण का वर्णन है।

● श्लोक नं. १५.७ का अर्थ है कि मनुष्य, रुह, आत्मा और भाग्य के कारण जीवित है और यह सब ईश्वर के नियंत्रण में है तो मनुष्य को ईश्वर से डरना चाहिए।

● श्लोक नं. १५.८ से १५.११ तक प्रलय के समय मनुष्य को फिर से जीवित किए जाने का वर्णन है।

●श्लोक नं. १५.१२ से १५.१५ में ईश्वर ने मनुष्य के चार भ्रम (गलतफहमी ) को दूर किया है।

१. मनुष्य सूर्य की उपासना करता है और यज्ञ में आग के द्वारा अन्य देवताओं की प्रार्थना करता है। ईश्वर ने इस श्लोक में कहा कि सूर्य और अग्नि का प्रकाश मुझसे ही ( इस कारण मेरी ही प्रार्थना करो।)

२. मनुष्य धरती माता की पूजा करता है। इस श्लोक में ईश्वर ने कहा मैं ही प्राकृतिक शक्ति से अनाज उगाता हूँ और वनस्पतियों में जो चन्द के प्रकाश से रस उत्पन्न होता है वह भी मेरी ही रचना है। इस कारण केवल मेरी प्रार्थना करो)

३. मनुष्य भोजन करके शक्ति प्राप्त करता है और फिर ईश्वर के आदेश का उल्लंघन करता है। तो ईश्वर इस श्लोक में याद दिलाते हैं कि भोजन पाचन करने की शक्ति मैं ही प्रदान करता हूँ (इस कारण मेरी ही प्रार्थना करो)

४. मनुष्य ज्ञान प्राप्त करके बड़ा ज्ञानी बन जाता है। फिर सत्य को अच्छी तरह जानने के बावजूद वह बातें कहता है जिससे उसे धन और सम्मान मिले। ईश्वर इस श्लोक में याद दिलाते है कि वेदों को मैंने ही अवतारित किया है। ज्ञान और स्मरणशक्ति मुझसे ही है। (इस कारण मेरी ही प्रार्थना करो और मेरी आज्ञा का पालन करो)।

इस अध्याय के अन्त में ईश्वर ने मनुष्य के एक और बड़ी गलतफहमी को दूर किया।

● ईश्वर ने श्लोक नं. १५.१६, १७, १८ में
कहा कि आत्मा अमर है किन्तु ईश्वर आत्मा से
(उत्तम) श्रेष्ठ है।

● मनुष्य में प्राण ईश्वर के तेज के अंश से है। मनुष्य में रह ईश्वर की रुह से है इस कारण वह सदैव पवित्र रहती है, किन्तु आत्मा तमो गुण की हो सकती है ऐसे आत्मा ईश्वर में समाने के योग्य नहीं हैं।

●अन्त में ईश्वर ने श्लोक नं. १५.१९ और १५.२० में कहा कि ईश्वर को पहचानने का ज्ञान ही (सर्व वित) सम्पूर्ण ज्ञान है। इस ज्ञान को प्राप्त करके मनुष्य वह करता है जो उसे करना चाहिए)

SHLOKS :

भगवद गीता - श्लोक 15.1 View

ईश्वर ने (श्रीकृष्ण के माध्यम से) कहा, (एक) बरगद का पेड़ है जिसे अमर (लम्बी आयुवाला) कहा जाता है। (जिसकी) ज़ड़े ऊपर की तरफ, शाखें नीचे की तरफ, उसकी पत्तियां वेदों के छंद है। (वह) जो इसको जानता है वह वेदों के सत्य और तत्त्व को जानता है।

भगवद गीता - श्लोक 15.2 View

उसकी (छोटी) शाखें गुण हैं (जो) ऊपर की ओर और नीचे की ओर बढ़ती है। (उसकी) कोंपले (टेहनियां) मन को आनंद देने वाली वस्तु हैं, (जो) नीचे की ओर बढ़ती हैं और (उसकी शाखाओं से निकलने वाली) जड़ें कर्म हैं जो निरंतर बढ़ती रहती है, (और) मनुष्य को (इस) संसार (से) बाँधे रहती हैं।

भगवद गीता - श्लोक 15.3 View

यह संसार (एक) बरगद के पेड़ (के समान हैं)। न (हम) इसके आकार को, न आरम्भ को, और न अंत को और न बुनियाद को ( समझ सकते हैं)। दृढ़ता से (मज़बूती से) एक ईश्वर की श्रद्धा के शस्त्र को (पकड़कर) इस पेड़ की मज़बूत जड़ों को काट दो ।

भगवद गीता - श्लोक 15.4 View

फिर उस (अन्य लोक) के स्थान को (तलाश) करना चाहिए, जहाँ जाकर दोबारा (कोई भी) (इस संसार में) वापस नहीं आता। (जहाँ जाकर) नि:संदेह उसे (उस) तब से प्रथम परमात्मा (की) शरण मिल जाती है। (यह अन्य लोक वह स्थान है) जिसके के कारण इस प्राचीन पृथ्वी लोक का आरम्भ और फैलाव (अस्तित्व) है।

भगवद गीता - श्लोक 15.5 View

(जो झूठे) सम्मान (और) लालच के बिना (जीता है)। संगम (शिर्क) करने (जैसी) गलती (पर) विजय प्राप्त कर ली है। जो केवल ईश्वर की प्रार्थना में निरंतर लगा रहता है। (जो) मन की इच्छा पूर्ति से रुका हुआ है। (जो) सुख (और) दु:ख जैसे दोहरे (भावनाओं से) मुक्त है (हर परिस्थिति में एक समान रहता है)। (ऐसा) बुद्धिमान ज्ञानी उस (स्वर्ग के) अमर स्थान को प्राप्त कर लेता है।

भगवद गीता - श्लोक 15.6 View

वह (स्वर्ग) न सूर्य से प्रकाशित है न चांद से (और) न (ही) आग (से)। (यह वह स्थान है) जहाँ जाकर (इस लोक में कोई भी) वापस नहीं (आता ) । वह (स्वर्ग का) स्थान (ही) मेरा सर्वश्रेष्ठ और दिव्य स्थान है।

भगवद गीता - श्लोक 15.7 View

निःसंदेह! प्राणियों के इस जीव लोक के जीवित प्राणि मेरे हमेशा एक जैसा स्थित रहने वाले (तेज के) अंश (से) स्थित (कायम) हैं। और मनुष्य आत्मा छ इच्छाऐं, (और) भाग्य (के कारण) सारे काम करता है। कुरआन के अनुसार (सूरह ३ आयत १६) छ इच्छाए इस प्रकार है। १. पत्नी २ पुत्र ३. धन (सोना चांदी) ४. अच्छी सवारी ५. पशुधन ६. संपत्ति का होना।

भगवद गीता - श्लोक 15.8 View

(मनुष्य) जो शरीर मृत्यु के समय) छोड़ जाता है, नि:संदेह (प्रलय के दिन उसे) दोबारा प्राप्त करता है। वह (शरीर) जिस (से) (आत्मा) दूर हो जाती है, ईश्वर (उसे) लाता है (कर्मों का हिसाब लेने के स्थान पर इसी तरह) जिस तरह वायु स्थानांतरण करती है सुगंध का।

भगवद गीता - श्लोक 15.9 View

कान, आँख, स्पर्श का एहसास, और जीभ, नाक और मन (बुद्धि)। निःसंदेह! यह सब फिर से जीवित हो जाते हैं। (इस तरह मनुष्य फिर से) मन को अच्छा लगने वाली वस्तुओं का आनंद ले सकता है।

भगवद गीता - श्लोक 15.10 View

मरने के बाद ( प्रलय के दिन दोबारा) स्थित (जीवित) होना, और (वस्तुओं से) आनंद लेना या ( मरे हुए शरीर का सम्बन्ध ) गुणों से होना, (यह सारी बातें) मूर्ख और अज्ञानी कभी नहीं समझ सकते । बल्कि इन्हें केवल ज्ञान की आँखे रखने वाले लोग ही देख सकते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 15.11 View

अपने आप में (ध्यान लगाने वाले), धर्म की स्थापना के लिए प्रयास करने वाले, और ईश्वर से जुड़ने वाली प्रार्थना के लिए प्रयास करने वाले, इन सब ( बातों को देख सकता है (समझ सकता है)। किन्तु जो अपने आप में (ध्यान) नहीं लगाते, ऐसे मूर्ख इन बातों को नहीं देख सकते (समझ सकते हैं ) ।

भगवद गीता - श्लोक 15.12 View

सारे जगत को प्रकाशित करने के लिए सूर्य के स्थान से जो प्रकाश मिलता है, जो चांदनी चंद्र से मिलती है, और जो प्रकाश अग्नि (से मिलता है) वह (सब) प्रकाश मुझसे जानो।

भगवद गीता - श्लोक 15.13 View

मैं धरती में प्रवेश करके प्राणियों की रक्षा करता हूँ और अपनी शक्तियों से उनका पालन-पोषण करता हूँ और सारी जड़ी-बूटियों को चांद बनकर जीवन का रस प्रदान करने वाला मैं हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 15.14 View

मैं प्राणियों के शरीर में पाचन शक्ति की अग्नि के रुप में रहता हूँ। अन्दर आने वाली सांस (और) बाहर जाने वाली (का) संतुलन (मुझसे है)। चारों प्रकार के अन्न (मेरे कारण ही) पचते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 15.15 View

मैं सारे (मनुष्यों के) हृदय (में) स्थित हूँ। स्मरण शक्ति, ज्ञान और भ्रम का नष्ट होना, शंका का निराकरण होना मुझसे है। और नि:संदेह वेदों को अवतरित करने वाला और वेदों के अर्थ को जानने वाला मैं हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 15.16 View

निःसंदेह! संसार में यह दो प्रकार के तत्व हैं। नाशवान शरीर और अविनाशी (आत्मा) और, ईश्वर कह रहा है कि, सारी नाशवान प्राणियों (के शरीर को) अविनाशी (आत्मा ने) मज़बूती से स्थित रखती है।

भगवद गीता - श्लोक 15.17 View

किन्तु (ईश्वर) कह रहा है कि वह ईश्वर (खुद) दूसरों से महानतम दिव्य व्यक्तित्व है। (वह) आत्मा ( से भी) महानतम है, वह अविनाशी है, तीनों लोकों पर छाया हुआ है और उनकी रक्षा करता है।

भगवद गीता - श्लोक 15.18 View

कारण कि मैं नाशवान (शरीर से) परे हूँ, और अविनाशी (आत्मा से) भी महानतम् हूँ इसलिए इस संसार में और वेदों में महानतम दिव्य व्यक्तित्व पुरुषोत्तम के (नाम से) प्रसिद्ध हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 15.19 View

हे भारत (अर्जुन)! जो किसी संदेह के बिना मुझको सबसे महान दिव्य व्यक्तित्व (अज़ीम हस्ती) जानता है, वह सभी (सत्य को) जानने वाला हो जाता है। (फिर वह ) हर तरह से नि:संदेह मेरी ही प्रार्थना में लग जाता है।

भगवद गीता - श्लोक 15.20 View

हे भारत (अर्जुन)! इस तरह यह सबसे गुप्त धार्मिक ज्ञान मेरे द्वारा (तुम्हें) कहा गया है। हे बेगुनाह (अर्जुन)! इन (धार्मिक ज्ञान को) समझकर मनुष्य बुद्धिमान हो जाता है। और (फिर) वह कर्म करता है जो करना उसके लिए उचित होता है।