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N-2.2.6 आत्मा को पवित्र या दुषित किया जा सकता है

उद्धरेत् आत्मना आत्मानम् न आत्मानम् अवसादयेत् ।
आत्मा एव हि आत्मनः बन्धुः आत्मा एव रिपुः आत्मनः ॥६.५।।


(हि) नि:संदेह (आत्मानम्) मनुष्य को चाहिए की (आत्मन) अपनी आत्मा को (उद्धाते) ऊपर उठाए (पवित्र करें) (आत्मानम्) मनुष्य को चाहिए कि (अवसादेयते) (अपनी आत्मा को) नीचे की तरफ (न) न ले जाए (अपवित्र न करे) (आत्मा) आत्मा (आत्मना) मनुष्य की (बन्धु) मित्र है (अत्मना) और आत्मा (ही) (आत्मना) मनुष्य की (रिपुः) शत्रु भी है।
नि:संदेह, मनुष्य को चाहिए कि अपनी आत्मा को ऊपर उठाए (पवित्र करें)। मनुष्य को चाहिए की (अपनी आत्मा को) निचे की तरफ न ले जाए (अपवित्र न करे )। आत्मा मनुष्य की मित्र है, और आत्मा (ही) मनुष्य की शत्रू भी है।

बन्धुः आत्मा आत्मनः तस्य येन आत्मा एव आत्मना जित: ।
श्रअनात्मनः तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एव शत्रु-वत् ।।६.६।।


(येन) जिस (आत्मनः) व्यक्ति ने (आत्मा) अपनी आत्मा (को) (जित:) जीत लिया (तस्य) उसके लिए (आत्मा) उसकी आत्मा (बन्धु) मित्र हो जाती है (तु) किन्तु (आत्मा एवं) वही आत्मा (आत्माना) उस व्यक्ति की (अनात्मान:) जिने उसे वश में नहीं किया है। (शत्रुत्वे वर्तेत) शत्रु होती है (एव) और नि:संदेह (शत्रु वत्) सदैव शत्रु की तरह व्यवहार करती है।

जिस व्यक्ति ने अपनी आत्मा (को) जीत लिया, उसके लिए उसकी आत्मा मित्र हो जाती है। किन्तु वही आत्मा उस व्यक्ति की, जिसने उसे वश में नहीं किया है। शत्रु होती है और नि:संदेह सदैव शत्रु की तरह व्यवहार करती है।

• पवित्र कुरआन में लिखा हैं कि,

“सफल हो गया (वह) जिसने उसे (अपनी आत्मा को) विकसित किया (पवित्र किया ) | और असफल हुआ जिसने उसे (अपनी आत्मा को) दबा दिया (दोषित किया)।”
(सूरे शम्श ९१, आयत ९-१०)
ऊपर लिखे श्लोक और आयत से हम समझ सकते हैं की आत्मा रुह की तरह पवित्र नहीं है। और एक ही स्थिती में नहीं रहती। इसे पवित्र करना होता है। और पाप कर्म से यह दूषित हो जाती है।