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N-5 कर्मफल कि आशा क्यों नहीं करना चाहिए?

• मनुष्य फल की आशा में ही कर्म करता है। किन्तु भगवद् गीता में दर्जनों श्लोक में लिखा है की कर्मफल की आशा न करो। या निःस्वार्थ कर्म करो। ऐसा क्यों? पुण्य की लालच में मनुष्य सत्कर्म क्यौं न करे ?

यह बहुत कठिन प्रश्न हैं। सरलता से इसे
समझने के लिए निम्नलिखित कथा पढ़िए।

• यहूदी समुदाय में एक ऋषि थे। उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की, "हे ईश्वर, आप मुझे संसार की चिंताओं से मुक्त कर दीजिए, ताकि मैं दिन रात आपकी भक्ति किया करूँ।" ईश्वर ने उनकी प्रार्थना सुन ली। उनको एक द्वीप पर पहुंचा दिया। द्वीप पर एक झरना जारी कर दिया और एक फल का पेड़ उगा दिया।

वे ऋषि रोज़ फल खाते, झरने का पानी पीते और दिन रात ईश्वर की भक्ति में मग्न रहते।

पाँच सौ वर्ष तक वह ईश्वर की बिना पाप किए भक्ति करते रहे। उनकी मृत्यु के बाद जब फरिश्तों ने उनको ईश्वर के सामने उपस्थित किया तो ईश्वर ने कहा कि, "मैं अपनी कृपा से तुझे क्षमा करता हूँ और स्वर्ग प्रदान करता हूँ।”

ऋषि को आश्चर्य हुआ। उन्होंने अपने मन में विचार किया कि स्वर्ग तो मुझे मेरी ५०० वर्ष की भक्ति के कारण मिलना चाहिए। ईश्वर के कृपा की क्या आवश्यकता थी।

ईश्वर तो मन के भाव को भी जानता है। उसने फरिश्तों को कहा कि, "ऋषि को स्वर्ग की ओर ले जाओ किन्तु पैदल ।”
(भगवद् गीता के श्लोक नं. ८.१६ का अर्थ है की स्वर्ग के चारों और नरक है। और श्लोक नं. ८.२४ का अर्थ है कि स्वर्ग के मार्ग उज्वलित होंगे।) नरक के उपर स्वर्ग जाने के लिए जो पुल है उसे इस्लामिक ग्रंथों में पुल-सीरात कहा गया है।


ऋषी को नरक के उपर से स्वर्ग में जाना था। जैसे जैसे नरक निकट आती गई, गर्मी बढ़ती गई। गर्मी से ऋषि का गला सुख गया और बहुत जोर से प्यास लगी। तभी एक हाथ प्रकट हुआ जिसने एक ग्लास पानी पकड़ रखा था। उसने पुछा, “पानी खरीदोगे।” ऋषि की जान जा रही थी। उसने पुछा कि, “क्या किमत है?” आवाज आई, “५०० सौ वर्ष की भक्ति।”

ऋषि के पास ५०० सौ वर्ष की भक्ति तो थी ही,
तुरन्त उसने भक्ति देकर पानी लेकर पी लिया।

जब फरिश्तों ने ऋषि को पुण्य से खाली पाया से तो फिर ईश्वर के पास ले आए।

ईश्वर ने कहा, “तुमने स्वयम् एक ग्लास पानी का मूल्य ५०० सौ वर्ष की भक्ति निश्चित किया है। ५०० वर्ष तक मैं तुम्हें हर दिन पीने के लिए पानी, खाने के लिए फल देता रहा। उसका आभार तुमने कैसे व्यक्त किया इसका हिसाब दो।”


ऋषि सजदे में गिर गए और कहा “नि:संदेह! हे ईश्वर, जिसे आप अपनी कृपा से स्वर्ग देंगे, केवल वही स्वर्ग प्राप्त कर सकता है।"

• पैगम्बर मुहम्मद साहब (स.) ने अपने साथियों से कहा, तुममें से कोई भी अपने सत्कर्म के कारण स्वर्ग में नहीं जाएगा। कुछ साथियों ने पुछा, "हे पैगम्बर साहब, आप भी?” पैगम्बर मुहम्मद साहब (स.) ने कहा, “मैं भी सत्कर्म के कारण स्वर्ग में नहीं जा सकता। मैं ईश्वर की कृपा से ही स्वर्ग में जा सकता हूँ।”
(सही बुखारी - ६०९९, सही मुस्लिम २८१८)

ऐसे पैगम्बर जो जीवन में कभी पाप नहीं करते, जब वह भी अपने पुण्य के सहारे स्वर्ग प्राप्त नहीं कर सकते हैं, तो साधारण व्यक्ति के पास पुण्य होता ही कितना है जो उसे स्वर्ग मिलेगा।

ईश्वर की हम पर इतनी कृपा होती है कि हम उसका पूरी तरह से आभार नहीं व्यक्त कर सकते या मान सकते हैं। हवा, पानी, प्रकाश, और अच्छा स्वास्थ ईश्वर की यह वह अनमोल उपहार हैं, कृपा हैं जिसका मोल हम प्रार्थना द्वारा या आभार व्यक्त करके कभी नहीं दे सकते। इसलिए हमें स्वर्ग भी ईश्वर की कृपा से ही मिलेगा। इसी कारण जो मुक्ति के लिए सबसे मुख्य वस्तु है वह है ईश्वर की प्रसन्नता है और कृपा न की पुण्य।

इसी विषय में कुछ श्लोक इस प्रकार हैं।

म्सर्व कर्माणि अपि सदा कुर्वाण: मतत्व्यपाश्रयः ।
मतत्प्रसादात् अवाप्नोति शाश्वतम् पदम् अव्ययम् ।।१८.५६ ।।


किन्तु (सच तो यह है कि) सभी सत्कर्मों को मेरे सहारे करने वाला, मेरी कृपादृष्टी (से ही) (स्वर्ग का) सदैव स्थित रहने वाला अविनाशी स्थान पा सकता है।

मत्—मना: भव मत् भक्त: मत् याजी माम् नमस्कुरु ।
माम् एव एष्यसि युक्तत्व एवम् आत्मानम् मत-परायणः ।।९.३४।।


मुझे अपने मन में रखो। मेरे भक्त बन जाओ। मेरी प्रार्थना करो। मुझे नमस्कार (सजदा) करो। अपने आपको (मेरी प्रार्थना में) व्यस्त रखो। नि:संदेह, इस तरह मेरे सहारे (तुम) मुझे पा लोगे।

मत प्रसादात और मत परायण यही हमारे मुक्ति का रास्ता हैं। पुण्य नहीं। इस कारण पुण्य की लालच ना करते हुए निःस्वार्थ कर्म करना चाहिए।