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N-9 श्लोक नं. २.१७ का स्पष्टीकरण

• श्लोक नं. २.१७ को समझने के पहले हमको श्री कृष्ण जी के अस्तित्व को समझना चाहिए।
श्री कृष्ण जी को समझने के लिए हम भगवद् गीता के निम्नलिखित श्लोकों का अध्ययन करते हैं।

• अर्जुन उवाच,
किम् तत् ब्रह्म किम् अध्यात्मम् किम् कर्म पुरुष-उत्तम ।
अधि-भूतम् च किम् प्रोक्तम् अधि-दैवम् किम् उच्यते ।।८.१॥


अर्जुन ने कहा, वह ईश्वर कौन है? आत्मा क्या है? पुरुष उत्तम (ईश्वर के) काम क्या हैं? और सभी प्राणियों का ईश्वर किसे कहते हैं? देवताओं का ईश्वर किसे कहते हैं?

• श्री भगवान उवाच, अक्षरम् ब्रह्म परमम् स्वभाव: अध्यात्मम् उच्यते ।
भूत-भाव- उद्भव कर: विसर्गः कर्म संज्ञित: ।। ८.३।।


ईश्वर ने कहा, महान अविनाशी (ॐ) को ब्रह्म (ईश्वर) कहते हैं। मनुष्य का अपना जो स्वभाव (व्यक्तित्व) है उसे आत्मा कहते हैं। प्राणियों के स्वभाव की रचना करना और उन्हें उनके प्राकृतिक जीवन के) कर्म ( उनको) प्रदान करना (इसे ईश्वर का) कर्म कहा जाता है।

इस व्याख्या से जो बात समझ में आती है वह यह है कि भगवद् गीता में निरंकार ईश्वर के होने की स्पष्ट श्रद्धा है।

• भगवद् गीता का एक श्लोक इस प्रकार है,

अधिभूतम् क्षरः भावः पुरुषः च अधिंदैवतम् ।
अधियज्ञ: अहम् एव अत्र देहे-भृताम् वर ।।८.४ ।।


हे देहधारियों में श्रेष्ठ (अर्जुन)! (मैं) सारे प्राणियों का ईश्वर हूँ। और मनुष्य नाश होने वाली प्रकृति वाला (नाशवान) है। मैं (ही) देवताओं का ईश्वर हूँ। सारी प्रार्थनाएं केवल मेरे लिए हैं। नि:संदेह उस शरीर पर ( मेरा ही राज है) ।

अर्थात जब भी अर्जुन ने ईश्वर के विषय में प्रश्न किया तो श्री कृष्ण जी ने ऐसा कभी नहीं कहा कि मैं ही ईश्वर हूँ। बल्की श्री कृष्ण जी ने हमेशा ईश्वर के अनेक गुणों का और महानता का वर्णन किया।


• एवम् एतत् यथा आत्थ त्वम् आत्मानाम् परम-ईश्वर
द्रुष्टुम् इच्छामि ते रुपम् ऐश्वरम् पुरुष-उत्तम ।।११.३।।


(उत्तम पुरुष) हे महापुरुष (श्री कृष्ण) (यथा) जिस तरह (आत्मानम) स्वयम (त्वम्) आपने (ऐश्वरम) ईश्वर (की) (परम) महानता (का प्रमाण देने) (एतत) इन (ईश्वर की दिव्य सांसारीक निर्माण के) (आत्थ) (बारे में) कहा (एवम्) इसी तरह से आपसे (एश्वरम्) ईश्वर की से (रुपम्) आध्यात्मिक रचना को (द्रष्टुम्) देखने का (इच्छामि) इच्छुक हूँ।

हे महापुरुष ( श्री कृष्ण) जिस तरह स्वयम आपने ईश्वर (की) महानता ( का प्रमाण देने ) इन (ईश्वर की दिव्य सांसारीक निर्माण के) (बारे में) कहा इसी तरह मैं आपसे ईश्वर की आध्यात्मिक रचना को देखने का इच्छुक हूँ।


इस श्लोक से हमें यह बात समझ में आती है कि अर्जुन भी ईश्वर को और श्री कृष्ण जी के अस्तित्व को अलग-अलग मानते थे। उन्होंने श्री कृष्ण जी को पुरुष-उत्तम कहा और ईश्वर को परम ईश्वर कहा।


• वृष्णीनाम् वासुदेव: अस्मि पाण्डवानाम् धनज्जयः ।
मुनीनाम् अपि अहम् व्यास: कबीनाम् उशना कविः ।।१०.३७॥


(ईश्वर ने कहा मैं) वृष्णी की पीढ़ी में वासुदेव यानी कृष्ण हूँ। पाण्डवों में अर्जुन हूँ। मुनि लोगों में व्यास मैं हूँ। कवियों में उशना कवी हूँ।

अर्जुन की विनती पर ईश्वर ने अपनी महान रचनाओं का वर्णन श्लोक नं. १०.२० से १०.३६ में किया। और अंत में कहा कि मैं श्री कृष्ण, अर्जुन और वेद व्यास हूँ। अर्थात यह भी मेरी महान रचनाएँ हैं। इनको देखकर मेरी महानता का एहसास करो।

इस श्लोक से यह बात भी समझ में आती है कि अर्जुन और वेद व्यास जी के समान श्री कृष्ण जी को भी ईश्वर ने ही बनाया है।

• बहुनाम जन्मनाम् अन्ते ज्ञान-वान माम् प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वम् इति सः महा-आत्मा सु-दुर्लभः ।।१९।।


इस तरह मृत्यु तक सारे कर्मों को (केवल) मेरे सहारे पर करने वाले कृष्ण के जैसा बहुत सारे जन्म लेने वाले ज्ञानियों में अत्यंत दुर्लभ है।

इस श्लोक में ईश्वर ने श्री कृष्ण जी की प्रशंसा
की है।

• श्री विष्णु पुराण ५/३३/१२ में श्री कृष्ण
ने कहा,

नाह देवो न गन्धवों न यक्षो न च दानवः । अहं वो बान्धवों जाती नैताच्चिन्त्यमितोहन्यथ ।
( श्री विष्णु पुराण ५ / २३/१२)

(श्री कृष्ण जी ने कहा) मैं न देव हूँ न गन्धर्व हूँ, न यक्ष हूँ और न दानव हूँ। मैं तो आपके बन्धु (दोस्त) स्वरुप से ही उत्पन्न हुआ हूँ। आप लोगों को इस विषय में और कुछ विचार न करना चाहिए।

इस श्लोक में श्री कृष्ण जी ने भी अपने आपको मनुष्य कहा है।

• संजय उवाच
यज्ञ योग-ईश्वरः कृष्णः यत्र पार्थः धनुः धरः ।
तत्र श्रीः विजयः भूतिः ध्रुवाः नीतिः मतिः मम ।।७८।।


संजय ने कहा, जहाँ ईश्वर से सम्पर्क रखने वाले योगेश्वर कृष्ण हैं और जहाँ धनुष रखने वाले पार्थ (अर्जुन) हैं, वहाँ पूर्णतया सुख और शान्ति विजय अच्छा भाग्य, सही नीति और धैर्य होगा। ऐसा मेरा मानना है।

इस श्लोक में संजय ने श्री कृष्ण जी को योग ईश्वर कृष्ण कहा, वह ईश्वर कृष्ण भी कह सकते थे। किन्तु वह जानते थे की श्री कृष्ण जी योगेश्वर हैं।

नालन्दा विशाल शब्द कोश में योग के ३८ अर्थ लिखे हैं। जिसमें एक अर्थ है जुड़ना या मिलना है और दुसरा अर्थ दूत है। (पेज नं. १९४४)

इस प्रकार 'योग- ईश्वर' का अर्थ 'ईश्वर का दूत' हुआ। श्लोक नं. ११.९ में भी श्री महा-योग ईश्वर कहा गया है। कृष्ण जी को

संजय उवाच,
एवम् उक्त्वा तत: राजन् महा-योग-ईश्वर हरि: ।
दर्शयामास पार्थाय परमम् रुपम् ऐश्वरम् ।।११.९।।


(संजय उवाच) संजय ने कहा (राजन) हे राजन (धृतराष्ट्र) (एवम्) इस तरह (उक्त्वा) कहते हुए (योग-ईश्वर) योग-ईश्वर (महा) महान (हरिः) श्री कृष्ण (आस) के स्थान से (तत) उस (ईश्वर ने) (पार्थाय) पार्थ (अर्जुन को) (ऐश्वरम्) ईश्वर द्वारा निर्माण कि गई। (परमम्) महान (रुपम्) रचनाओं को (दर्शयामास) दिखाया।

संजय ने कहा, हे राजन ( धृतराष्ट्र ) ! इस तरह कहते हुए योग- ईश्वर महान श्री कृष्ण के स्थान से उस (ईश्वर ने) पार्थ (अर्जुन को) ईश्वर द्वारा निर्माण की गई महान रचनाओं को दिखाया।

इस प्रकार इस श्लोक में भी श्री कृष्ण जी को ईश्वर का दूत कहा गया है।

• पैगंबर मुहम्मद (स.) ने कहा, भारत में ईश्वर के एक दूत हुए हैं जिनका श्याम रंग था और नाम कहान था। (Taarikh-i-Hamdaan Dailami, Chapter Al kaaf, P-854 by Malik Abdur Rahaman Khadim)

श्री कृष्ण जी का एक नाम 'कान्हा' है । और आपका रंग सावला था।

भगवद् गीता का परिचय

बायबल में लिखा है प्रोफेट डेविड ने कहा,
"स्थिर रहो, और इस बात को जानो कि मैं ईश्वर हूँ।” (Oremus Bible: Psalm 49.10)

लोग जानते थे कि यह आकाशवाणी है और ईश्वर के शब्द हैं। इसलिए किसी ने प्रोफेट डेविड को ईश्वर नहीं कहा।

इसी प्रकार पैगंबर मुहम्मद साहब (स.) ने कहा, “नि:संदेह मैं ही ईश्वर हूँ, मेरे अतिरिक्त दूसरा कोई ईश्वर नहीं है, इस कारण केवल मेरी प्रार्थना करो।” (पवित्र कुरआन, सूरे ताहा २०, आयत नं. १४)

जब पैगंबर मुहम्मद साहब (स.) ने यह शब्द कहे तो किसी ने नहीं कहा कि पैगंबर मुहम्मद साहब (स.) ही ईश्वर हैं। सब जानते थे कि यह आकाशवाणी है और ईश्वर के शब्द हैं। पैगंबर मुहम्मद साहब (स.) केवल उसे मानवजाति को अपने मुख से कहकर सुना रहे हैं।

इसी प्रकार यह भगवद् गीता ईश्वर की वाणी है। जिसे श्री कृष्ण जी ने कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर अर्जुन से कहा था और महाऋषि वेद व्यास जी से ने लिखकर सारे मानवजाती तक पहुंचा दिया।

• गीता का एक श्लोक इस प्रकार है।

य: माम् अजम् अनादिम् च वेत्ति लोक महा-ईश्वरम असम्मूढः
सः मत्र्येषु सर्व-पापैः प्रमुच्यते ॥३॥


जो मुझे अजन्मा, अनादि (आरंभ के बिना) और ब्रह्माण्ड का महान ईश्वर मानता है वह मूर्ख नहीं है मृत्यु के बाद (वह) सर्व पापों से भी मुक्त हो जाएगा।

यह शब्द श्री कृष्ण जी ने अपने मुख से कहे थे किन्तु कही गई बात से हम समझ सकते है कि यह ईश्वर की वाणी हैं। क्योंकि श्री कृष्ण जी अजन्मे नहीं है। आपका जन्म वासुदेव जी के घर हुआ था और मृत्यु जारा का गलती से तीर लगने से हुई।

• तो यह भगवद् गीता ईश्वर की वाणी है जिसे ईश्वर ने श्री कृष्ण के द्वारा अर्जुन से कहा था। संस्कृत महापंडीत श्री सुंदरलाल जी ने अपनी पुस्तक "गीता और कुरआन" के पेज नं. १०२ पर लिखा है की ज्ञानियों के अनुसार कुरुक्षेत्र की रणभूमि में ईश्वर ने अर्जुन को श्री कृष्ण के माध्यम से लगभग १०० आदेश दिए थे। जिसे तुरंत नहीं लिखा गया था। युद्ध के बाद वेद व्यास जी ने इसे साधारण लोगों के समझने के लिए १८ अध्याय और ७०० श्लोकों में विस्तार से लिखा है।

• सनातन धर्म में ईश्वर में श्रद्धा के स्पष्ट आदेश हैं और श्री कृष्ण जी स्वयम् योगेश्वर हैं। अर्थात ईश्वर के दूत हैं। इस कारण श्लोक नं. २.१७ में आपने ईश्वर का वर्णन किया।